पृष्ठ:आग और धुआं.djvu/१६४

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एक खाँ साहब बालों में मेंहदी लगाए, दिल्ली के वसली के जूते पहने, तनजेब की चमकन कसे, सिर पर लसदार ऊँची टोपी लगाए आए। रूपा ने बड़े तपाक से कहा-अख्खा खाँ साहब। आज तो हुजूर रास्ता भूल गए। अरे कोई है, आपको बैठने को जगह हो। अरी, गिलौरियाँ तो लाओ।

खाँ साहब रूपा के रूप की तरह चुपचाप गिलौरियों के रस का घूँट पीने लगे।

थोड़ी देर में एक अधेड़ मुसलमान अमीरजादे की शक्ल में आए। उन्हें देखते ही रूपा ने कहा-अरे हुजूर तशरीफ ला रहे हैं। मेरे सरकार। आप तो ईद के चाँद हो गए। कहिए, खैराफियत है? अरी मिर्जा साहब को गिलौरियाँ दी?

तश्तरी में खनाखन हो रही थी, और रूपा का रूप और पान की हाट खूब गरमा रही थी। ज्यों-ज्यों अंधकार बढ़ता जाता था, त्यों-त्यों रूपा पर रूप की दुपहरी चढ़ रही थी। धीरे-धीरे एक पहर रात बीत गई। ग्राहकों की भीड़ कुछ कम हुई। रूपा अब सिर्फ कुछ चुने हुए प्रेमी ग्राहकों से घुल-घुल कर बातें कर रही थी। धीरे-धीरे एक अजनबी आदमी दुकान पर आकर खड़ा हो गया। रूपा ने अप्रतिभ होकर पूछा--

"आपको क्या चाहिए?"

"आपके पास क्या-क्या मिलता है?"

"बहुत-सी चीजें। क्या पान खाइएगा?"

"क्या हर्ज है।

रूपा के संकेत से दासी बालिका ने पान की तश्तरी अजनबी के आगे धर दी।

दो बीड़ियाँ हाथ में लेते हुए उसने कहा-"इनकी कीमत क्या है बी साहबा।"

"जो कुछ जनाब दे सकें।"

"यह बात है? तब ठीक, जो कुछ मैं लेना चाहूँ वह लूँगा भी।" अजनबी हँसा नहीं। उसने भेदभरी दृष्टि से रूपा को देखा।

रूपा की भृकुटी जरा टेढ़ी पड़ी, और वह एक बार अजनबी को तीव्र दृष्टि से देखकर फिर अपने मित्रों के साथ बातचीत में लग गई। पर बात-

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