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मुग्ध-सी उठकर उनके साथ चली गई।

इसी समय एक खोजे ने आकर अर्ज की-"खुदावंद! रेजीडेंट उटरम साहब बहादुर बड़ी देर से हाजिर हैं।"

"उनसे कह दो, अभी मुलाक़ात नहीं होगी।"

"आलीजाह! कलकत्ता से एक जरूरी..

"दूर हो मुर्दार।"

खोजा चला गया।

लखनऊ के खास चौकबाजार की बहार देखने योग्य थी। शाम हो चली थी, और छिड़काव हो गया था। इक्कों और बहलियों, पालकियों और घोड़ों का अजीब जमघट था। आज तो उजड़े अमीनाबाद का रंग ही कुछ और है। तब यही रौनक चौक को प्राप्त थी। बीच चौक में रूपा की पानों की दुकान थी। फानूसों और रंगीन झाड़ों से जगमगाती गुलाबी रोशनी के बीच, स्वच्छ बोतल में मदिरा की तरह, रूपा दुकान पर बैठी थी। दो निहायत हसीन लौंडियाँ पान की गिलौरियाँ बनाकर उनमें सोने के वर्क लपेट रही थीं। बीच-बीच में अठखेलियाँ भी कर रही थीं। आजकल के कलकत्ता-दिल्ली के रंगमंचों पर भी ऐसा मोहक और आकर्षक दृश्य नहीं देख पड़ता, जैसा उस समय रूपा की दुकान पर था। ग्राहकों की भीड़ का पार न था। रूपा खास-खास ग्राहकों का स्वागत कर पान दे रही थी। बदले में खनाखन अफियों से उसकी गंगा-जमनी काम की तश्तरी भर रही थी। वे अफियाँ रूपा की एक अदा, एक मुस्कराहट-केवल एक कटाक्ष का मोल थीं। पान गिलौरियाँ तो लोगों को घाटे में पड़ती थीं। एक नाजुकअंदाज नवाबजादे तामजाम में बैठे अपने मुसाहबों और कहारों के झुरमुट के साथ आए और रूपा की दुकान पर तामजाम रोका।

रूपा ने सलाम करके कहा-मैं सदके शाहजादा साहब, जरी बाँदी की एक गिलौरी कुबूल फरमायें।

रूपा ने लौंडी की तरफ इशारा किया। लौंडी सहमती हुई, सोने की रकाबी में पाँच-सात गिलौरियाँ लेकर तामजाम तक गई। शहजादे ने मुस्कराकर दो गिलौरियाँ उठाईं, और एक मुट्ठी अफियाँ तश्तरी में डाल कर आगे बढ़े।

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