मस्जिद की सीढ़ियाँ चढ़ती हुई भीतर चली गई।
मस्जिद में सन्नाटा और अंधकार था, मानो वहाँ कोई जीवित पुरुष नहीं है। पालकी के आरोहियों को इसकी परवाह न थी। पालकी को सीधे मस्जिद के भीतरी भाग में एक कक्ष में ले गए। यहाँ पालकी रखी। बुढ़िया ने बाहर आकर बगल की कोठरी में प्रवेश किया। वहाँ एक आदमी सिर से पैर तक चादर ओढ़े सो रहा था।
बुढ़िया ने कहा-"उठिए मौलवी साहब, मुरादों को तावीज इनायत कीजिए क्या अभी बुखार नहीं उतरा?"
"अभी तो चढ़ा ही है," कहकर मौलवी साहब उठ बैठे। बुढ़िया ने कुछ कान में कहा-मौलवी साहब सफेद दाढ़ी हिलाकर बोले-समझ गया, कुछ खटका नहीं। हैदर खोजा मौके पर रोशनी लिए हाजिर मिलेगा। मगर तुम लोग बेहोशी की हालत में उसे किस तरह--
"आप बेफिक्र रहें। बस, सुरंग की चाबी इनायत करें।"
मौलवी साहब ने उठकर मस्जिद के बाईं ओर के चबूतरे के पीछे वाले भाग में जाकर एक कब्र का पत्थर किसी तरकीब से हटा दिया। वहाँ सीढ़ियाँ निकल आई। बुढ़िया उसी तंग तहखाने के रास्ते उसी काले वस्त्र से आच्छादित लम्बी स्त्री के सहारे एक बेहोश स्त्री को नीचे उतारने लगी। उनके चले जाने पर मौलवी साहब ने गौर से इधर-उधर देखा, और फिर किसी गुप्त तरकीब से तहखाने का द्वार बंद कर दिया। तहखाना फिर कब्र बन गया।
चार हजार फानूसों में काफूरी बत्तियाँ जल रही थीं, और कमरे की दीवार गुलाबी साटन के पर्दो से छिप रही थी। फर्श पर ईरानी कालीन बिछा था, जिस पर निहायत नफीस और खुशरंग काम बना हुआ था। कमरा खूब लम्बा-चौड़ा था। उसमें तरह-तरह के ताजे फूलों के गुलदस्ते सजे हुए थे और हिना की तेज महक से कमरा महक रहा था। कमरे के एक बाजू में मखमल का बालिश्त-भर ऊँचा गद्दा बिछा था, जिस पर कारचौबी का उभरा हुआ बहुत ही खुशनुमा काम था। उस पर एक बड़ी-सी मसनद लगी थी, जिस पर सुहरी खंभों पर मोती की झालर का चंदौबा तना था।
मसनद पर एक बलिष्ठ पुरुष उत्सुकता से, किन्तु अलसाया बैठा था।
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