पृष्ठ:आग और धुआं.djvu/१५९

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नवाब ने नहीं की थी। अवध को हड़पने का उनका स्वप्न पूरा होने वाला था। उटरम ने नवाब के अंतरंग मित्रों की सहायता लेकर उन्हें कैद करने का दूसरा उपाय किया।

लखनऊ के अमीनाबाद पार्क में इस समय जहाँ घंटाघर है, वहाँ अब से सौ वर्ष पूर्व एक छोटी-सी टूटी हुई मस्जिद थी, जो भूतोंवाली मस्जिद कहलाती थी, और अब जहाँ वालाजी का मन्दिर है, वहाँ एक छोटा-सा कच्चा एकमंजिला घर था। चारों तरफ न आज की सी बहार थी न बिजली की चमक, न बढ़िया सड़कें, न मोटर, न मेम साहबाओं का इतना जमघट।

वाजिदअली शाह की ऐयाशी और ठाठ-बाट के दौरदौरे थे। मगर इस मुहल्ले में रौनक न थी। उस घर में एक टूटी-सी कोठरी में एक बुढ़िया-मनहूस सूरत, सन के समान बालों को बखेरे बैठी किसी की प्रतीक्षा कर रही थी। घर में एक दीया धीमी आभा से टिमटिमा रहा था। रात के दस बज गए थे, जाड़ों के दिन थे; सभी लोग अपने-अपने घरों में रजाइयों में मुँह लपेटे पड़े थे। गली और सड़क पर सन्नाटा था।

धीरे-धीरे बढ़िया वस्त्रों से आच्छादित एक पालकी इस टूटे घर के द्वार पर चुपचाप आ लगी, और काले वस्त्रों से आच्छादित एक स्त्री-मूर्ति ने पालकी से बाहर निकलकर धीरे-से द्वार पर थपकी दी। तत्काल द्वार खुला और स्त्री ने घर में प्रवेश किया।

बुढ़िया ने कहा-"खैर तो है?"

"सब ठीक है; क्या मौलवी साहब मौके पर मौजूद हैं?"

"कब के इंतजारी कर रहें हैं, कुछ ज्यादा जाफिशानी तो नहीं उठानी पड़ी?"

"जाफिशानी? खुश, जान पर खेलकर लाई हूँ। करती भी क्या, गर्दन थोड़े ही उतरवानी थी?"

"होश में तो है?"

"अभी बेहोश है। किसी तरह राजी न होती थी। मजबूरन यह किया गया।"

"तब चलो।"

बुढ़िया उठी। दोनों पालकी में जा बैठीं। पालकी संकेत पर चलकर

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