मँगवाया था, पर बेगम उसे तैयार न करा सकीं। बीच में ही उनकी मृत्यु हो गई।
उस जमाने में कम्पनी की आर्थिक स्थिति बहुत ही नाजुक थी। उसकी हुण्डियों की दर बाजार में बारह फीसदी बट्टे पर निकलती थी। उन दिनों मेजर बेली लखनऊ में रेजीडेण्ट थे, जिनके बुरे व्यवहार से नवाब तंग आ गये थे। नवाब ने गवर्नर से इनकी शिकायतें की। गवर्नर लखनऊ आये, पर नतीजा उल्टा हुआ।
नवाब मेजर बेली के उद्धत प्रभुत्व के नीचे हर घण्टे आहें भरता था। उसे आशा थी कि गवर्नर उसे इस अन्याय से छुटकारा दिला देंगे। किन्तु उसने तो मेजर बेली का प्रभुत्व और भी पक्का कर दिया। मेजर बेली छोटी-से-छोटी बातों पर नवाब पर हुकूमत चलाता था। जब कभी मेजर बेली को नवांब से कुछ कहना होता था, वह चाहे जब बिना सूचना दिये महल में जा धमकता था। उसने अपने आदमियों को बड़ी-बड़ी तनख्वाहों पर नवाब के यहाँ लगा रखा था, जो जासूसी का काम करते थे। मेजर बेली जिस हाकिमाना शान के साथ हमेशा नवाब से बातें करता था, उसके कारण नवाब कुटुम्बियों और प्रजा की नजरों में गिर गया था।
इस यात्रा में गवर्नर ने नवाब से ढाई करोड़ रुपये नकद नेपाल युद्ध के खर्च के लिये वसूल किये। इसके बदले नेपाल से मिली भूमि का एक टुकड़ा नवाब को दिया गया था, जो वास्तव में लगभग बंजर था।
गाजीउद्दीन के बाद ज्येष्ठ पुत्र गाजी नसीरुद्दीन हैदर गद्दी पर बैठे। उन्होंने अपना नाम अबदुलबसर कुतुबुद्दीन सुलेमान जाह नसीरुद्दीन हैदर बादशाह रखा। वह पच्चीस वर्ष के युवक थे। उन्होंने गद्दी पर बैठते ही पिता के वजीर को बर्खास्त करके एक पीलवान को वजीर बनाया और एतमुद्दौला का खिताब दिया, पर वह वजीर शीघ्र ही मर गया। तब नवाब मुत्तजिमुद्दौला हकीम ऐहदीअली खाँ वजीर हुए। उन्होंने एक अस्पताल और एक खैरातखाना तथा एक लीथो छापाखाना खुलवाया। एक अंग्रेजी स्कूल भी खुला।
नसीरुद्दीन बड़े ऐयाश थे। इनके महल में कई यूरोपियन लेडियाँ थीं। छतरमंजिल उन्होंने ही बनवाई थी और भी बहुत-सी कोठियाँ बनवाई।
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