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इसके कुछ दिन बाद ही फर्रुखाबाद के नवाब को, जो अवध का सूबा था, एक लाख आठ हजार रुपया सालाना पेन्शन देकर गद्दी से उतार दिया गया।

सआदतअली में एक दुर्गुण भी था। वह शराबी और विलासी थे। पर पीछे से तौबा कर ली थी। उन्होंने लखनऊ में बहुत-सी सुन्दर इमारतें बनवाई। वह लखनऊ को एक खूबसूरत शहर की शक्ल में देखना चाहते थे। उन्होंने बहुत-से मुहल्ले और बाजार भी बनवाये।

उनकी मृत्यु पर उनके बड़े बेटे नवाब गाजीउद्दीन हैदर गद्दी पर बैठे। अवध का नवाब दिल्ली मुगल सम्राट् की आधीनता में एक सूबेदार और मुगल दरबार का वजीर होता था, परन्तु वारेन हेस्टिग्स ने लखनऊ में दरबार करके नवाब गाजीउद्दीन हैदर को बाजाब्ता 'बादशाह' घोषित किया और उसकी दिल्ली दरबार की आधीनता समाप्त कर दी। बादशाही पदवी प्राप्त करके उन्होंने अपना नाम 'अबुल मुजफ्फर मुहउद्दीन शाह जिमनगाजीउद्दीन हैदर बादशाह' रखा। उन्होंने अपने नाम का सिक्का भी चलाया। परन्तु स्वतन्त्र बादशाह बनकर न नवाब के अधिकार बढ़े, न स्वतन्त्रता। यह केवल एक हास्यास्पद प्रहसन था।

वह भी उदार, साहित्यिक और गुणग्राही बादशाह थे। मिरजा मुहम्मदजॉनवी किरमाली उनके दरबारी थे। उर्दू के प्रसिद्ध कवि आतिश और वासिख उन्हीं के जमाने में थे। ईद के अवसर पर कवियों को बहुत इनाम मिलता था। उस समय के प्रसिद्ध गवैये रजकअली और फजलअली का भी दरबार में पूरा मान था। वे दोनों 'ख्याल' गाने में अपनी सानी नहीं रखते थे। एक दक्षिणी वेश्या का भी उनके यहाँ बहुत मान था।

उनके प्रधानमन्त्री नवाब मोतमिउद्दौला आगा मीर थे जो बड़े बुद्धिमान् थे। उन्होंने राज्य की बड़ी उन्नति की। खजाना रुपयों से भरपूर रहा। करोड़ों रुपये ईस्ट इण्डिया कम्पनी को कर्जा देते रहे।

बादशाह की प्रधान बेगम बादशाह-बेगम कहलाती थीं, और बड़े ठाठ से अलग महल में रहती थीं। उनसे किसी बात पर बादशाह की खटक गई थी। बेगम ने भी कई अच्छी इमारतें बनवाई। प्रसिद्ध शाह नजफा बेगम ने ही बनवाया था। गोमती नदी पर लोहे का पुल विलायत से बनवाकर

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