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क्योंकि वे आसफउद्दौला की भांति शाह-खर्च न थे। परन्तु खर्च की जगह पीछे न हटते थे। वे अंग्रेज-सरकार के बड़े भक्त थे; क्योंकि उन्हें अंग्रेज सरकार ने ही गद्दीनशीन किया था।

कम्पनी सरकार को कुल मिलाकर एक करोड़ रुपये से ऊपर तथा इलाहाबाद का किला एक वर्ष ही के अन्दर मिल गया। एक शर्त यह भी थी कि सिवा कम्पनी के आदमियों के अन्य कोई भी यूरोपियन अवध-राज्य में न रहने पाये।

इसके बाद जब लार्ड वेलेजली गवर्नर होकर आये, तब उन्होंने दो वर्ष ही यह सन्धि तोड़ दी। उसने नवाब को अपनी सेना में कुछ संशोधन करने की भी अनुमति दी। उस संशोधन का अभिप्राय यह था कि मालगुजारी की वसूली आदि के लिये जितनी सेना दरकार हो, उसे छोड़कर शेष सब सेना तोड़ दी जाय, और उसके स्थान पर कम्पनी के प्रबन्ध और नवाब के नाम से कुछ ऐसी सेनाएँ रखी जायें जिनका खर्च ७५ लाख रुपये सालाना हो।

नवाब ने इसके उत्तर में एक तर्क-पूर्ण और कड़ा उत्तर लिखा, और अंग्रेज-सरकार को इस प्रकार हस्तक्षेप करने के लिये मीठी फटकार दी।

इस पत्र को लॉर्ड वेलेजली ने तिरस्कारपूर्वक वापिस कर दिया और नवाब को लिख दिया कि कुछ पेन्शन सालाना लेकर सल्तनत से हट जाओ, या जो पल्टने नई आ रही हैं, उनके खर्च के लिए आधा राज्य कम्पनी के हवाले करो।

ये पलटनें भेज दी गईं, और रेजीडेण्ट को लिख दिया गया, कि यदि नवाब चीं-चपड़ करे, तो सेना-द्वारा राज्य पर कब्जा कर लो। वेलेजली ने यह भी स्पष्ट लिख दिया कि नवाब की सैनिक-शक्ति खत्म कर दी जाय, और अवध की सारी सल्तनत के दीवानी और फौजदारी अधिकार कम्पनी के हो जायें।

नवाब ने बहुत चिल्ल-पों मचाई, पर नतीजा कुछ न हुआ, और नवाब को अपनी सल्तनत का आधा भाग, जिसकी आय एक करोड़ पैंतीस लाख रुपये सालाना थी, और जिससे वर्तमान उत्तर प्रदेश की बुनियाद पड़ी, सदा के लिये कम्पनी को सौंप देने पड़े।

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