महाराज ने उन्हें धन्यवाद देते हुए कहा-मैं आशा करता हूँ कि मेरे कुटुम्बियों पर भी आपकी ऐसी ही कृपा बनी रहेगी। प्रारब्ध अटल है, आप मेरा सलाम कौन्सिल के सभ्यों को कहना।
मेकरेब लिखते हैं-बात करते वक्त महाराज न साँस भरते थे, न उदास मालूम होते थे, और न उनका कण्ठ अवरुद्ध दिखलाई पड़ता था। उनका चेहरा गम्भीर था, उस पर विषाद का कुछ भी चिन्ह न था। महाराज की दृढ़ता देखकर मेकरेब साहब अधिक देर तक न ठहर सके। बाहर आने पर जेलर ने कहा--जब से महाराज के मित्र उनसे मिलकर गये हैं, तब से वे बराबर अपने हिसाब-किताब की जाँच-पड़ताल कर रहे हैं और नोट लिख रहे हैं।
फाँसी का समय ६ बजे प्रातःकाल था। मेकरेब साहब ठीक समय से आधा घण्टा पूर्व जेल गये। वहाँ फाँसी का सब सामान ठीक था। अंग्रेजों की अमलदारी में ब्राह्मण को फाँसी लगने का यह प्रथम ही अवसर था। हजारों मनुष्य देखने आये थे। उन सबकी आँखों में आँसू झलक रहे थे। खबर पाकर महाराज उतरकर नीचे आये। इस समय भी उनका मुख प्रसन्न था। शेरीफ साहब के बैठने पर वे भी एक कुर्सी पर बैठ गए। इतने में किसी ने घड़ी जेब से निकालकर देखी। यह देख महाराज तत्काल उठ खड़े हुए और बोले-मैं तैयार हूँ। पीछे घूमकर देखा तो तीन ब्राह्मण खड़े थे। वे उनका मृत शरीर लेने आये थे। महाराज ने उन्हें छाती से लगाया। महाराज प्रसन्न थे, पर ब्राह्मण फूट-फूट कर रो रहे थे।
मेकरेब ने घड़ी निकालकर कहा—समय तो हो गया, किन्तु जब तक आप न कहेंगे, तब तक यह पापिनी क्रिया आरम्भ न की जायेगी। एक घण्टे तक सब चुप बैठे रहे। बीच-बीच में महाराज कुछ बातचीत करते रहे और माला फेरते रहे। इसके बाद महाराज उठे, शेरीफ की तरफ देखा, और दोनों चल दिये। जेल के फाटक पर पालकी तैयार थी। महाराज पालकी पर सवार होकर जेल की तरफ चले। शेरीफ और डिप्टी शेरीफ पालकी के पीछे-पीछे चल रहे थे। भीड़ बहुत थी पर दंगा-फसाद का कुछ लक्षण न था। टिकटी के पास पहुंचकर महाराज ने कुछ ब्राह्मणों के न आने के विषय में पूछा। महाराज उनके विषय में पूछ ही रहे थे कि वे भी आ
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