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इसके बाद गुरु-दर्शन की अभिलाषा से एक बार वे मुर्शिदाबाद गए, उनकी कन्या के लिए, जिसे वे अपनी धर्म-भगिनी करके मानते थे, कुछ आभूषण साथ ले गए। परन्तु मुर्शिदाबाद पहुँचे तब उन्हें खबर मिली कि गुरु-पत्नी का देहान्त हो चुका है, और उनकी लड़की विधवा हो गई है।ऐसी दशा में उन्होंने आभूषणों के लाने की चर्चा तक गुरुजी से नहीं की और उन गहनों को अपने परिचित बुलाकीदास महाजन की दुकान में अमानत की तरह जमा करा दिया और मन में संकल्प किया कि किसी अवसर पर उन्हें बेचकर उनसे जो रुपये आवेंगे उन्हें प्रमदादेवी को दे देंगे।

दैवयोग से मीरकासिम और अंग्रेजों के युद्ध में मुर्शिदाबाद लूट लिया गया। बुलाकीदास का भी सर्वस्व लूटा गया। बुलाकीदास धर्मात्मा थे। उन्होंने महाराज को उनकी अमानत के बदले में ४८०२१ रुपये का तमस्मुक लिख दिया। बुलाकीदास मर गए, और उसी दस्तावेज को जाली करार देकर महाराज पर मुकदमा चलाया गया।

खैर, महाराज की ओर से सफाई की गवाहियाँ पेश हुई। बड़े-बड़े लोगों ने गवाहियाँ दीं। गवाही समाप्त हो चुकने पर जजों ने जूरियों को मुकदमा समझाया और उस पर एक लम्बी वक्तृता भी दी। वक्तृता समाप्त होने पर जूरी लोग दूसरे कमरे में उठ गए। आधे घण्टे बाद उन्होंने लौटकर कहा-

"महाराज नन्दकुमार अपराधी हैं।"

यह सुनते ही महामति इम्पे साहब ने महाराज को फांसी का हुक्म दे दिया।

हुक्म सुनाकर महाराज फिर जेल में भेज दिए गये। इस बार खेमे के बजाय एक दुतल्ला मकान उन्हें दिया गया। हजारों लोग शत्रु-मित्र उनसे मिलने आते थे। नबाव मुवारकुद्दौला ने कौन्सिल की सेवा में एक पत्र भेजा था। उसमें उसने प्रार्थना की थी कि इंग्लैण्ड के बादशाह की आज्ञा आने तक महाराज की फाँसी रोकी जाय।

स्वयं महाराज ने भी जनरल क्लीवरिंग और सर फ्रान्सिस के पास एक पत्र इस आशय का भेजा था-

"सर्वशक्तिमान् ईश्वर के बाद आप पर मुझे आशा है। मैं ईश्वर के नाम पर नम्रतापूर्वक आपसे अनुरोध करता हूँ कि इंग्लैण्ड के बादशाह की

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