जब किसी पर नमक की चोरी का अपराध लगाया जाता था तो आजिमअली गवाह बनता था। पर अब वह सभा बन्द हो गई थी। आजिमअली ने अब एक औरत से निकाह पढ़ाकर लालबाजार में जूते की दूकान खोल ली थी।
तीसरी जून से सुबूत के गवाहों की जबानबन्दी आरम्भ हुई थी और ११वीं जून को सुबूत की गवाही समाप्त हुई थी। फिर भी १२वीं जून को आजिमअली गवाह पेश किया गया। यह कार्यवाही वेजाब्ता थी, पर इस मुकदमे में जाब्ता ही क्या था?
गवाहों के कटहरे में आजमअली को खड़ा होते देख महाराज के गुमाश्ते और उनके दामाद के देवता कूच कर गए। वह एक सिद्धहस्त गवाह था। वे समझ गए, बस यह चश्मदीद गवाह बनकर आया है। चैतन्य बाबू ने इस समय धूर्तता से काम लिया। उन्होंने हाथ के इशारे से आजिम को सौ, फिर दो सौ, फिर तीन सौ रुपये देने का शारा किया, पर आजिम न माना। वह हलफ उठाकर कहने लगा-
महाराज नन्दकुमार का मकान जानता हूँ। उनके गुमाश्ता चैतन्यनाथ ने मेरी दुकान से जूता लिया था। मैं सन् १७६६ के जुलाई मास में चतन्य बाबू से जूतों के दामों का तकाजा करने महाराज नन्दकुमार के मकान पर गया। उसके दस दिन पहले बुलाकीदास की मृत्यु हो गई थी। वहाँ मैंने चैतन्य बाबू को काम में फंसे हुए पाया। पूछने पर उन्होंने कहा-'इस समय महाराज एक जाली दस्तावेज बना रहे हैं, उसीमें मैं इस समय फंसा हूँ।' इसके बाद देखा, महाराज बैठक में नाक पर चश्मा चढ़ाकर बक्स में से २५-३० मुहर निकालकर उनका नाम जोर-जोर से पढ़ रहे हैं। एक मुहर को उन्होंने कमालुद्दीन की कहकर चैतन्यनाथ को दिखाया भी था।"
आजिम का यह इजहार सुनकर कोर्ट के जजों की आनन्द से बत्तीसी खुल गई। वे उत्सुकता से कहने लगे-'गो आन'।
आजिमअली-हुजूर, इसके बाद तमस्मुक की शक्ल के कागज पर वह मुहर छाप दी गई।
एक जज-कहे जाओ, कहे जाओ।
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