था। लखनऊ में भी कम्पनी का एक रेजीडेण्ट रहता था। उस समय तक रेजीडेण्टों को नवाब के सामने आने पर दरबार के नियमों का पालन करना पड़ता था और अन्य दरबारियों की भाँति उन्हें भी अदब के साथ नवाब से मिलना पड़ता था।
नवाब ने रेजीडेण्ट के रहने के लिये एक विशाल इमारत बनवाई थी जो १८५७ की घटनाओं के कारण अब बहुत प्रसिद्ध हो गई है।
एक बार नवाब घोड़े पर सवार सैर को निकले तो एक चूहा उनके घोड़े की टाप के नीचे दब गया। इस पर उन्होंने वहीं उसकी कब्र बनवा दी और एक बाग लगवाया, जो 'मूसा बाग' के नाम से प्रसिद्ध है। यह बाग नवाब को बहुत प्रिय था। इसी में बादशाह जानवरों की लड़ाई देखा करते थे। सन् १७७५ में उनकी मृत्यु हुई।
उनके बाद इनके तीसरे पुत्र मिरजा अनजीअलीखाँ आसफउद्दौला के नाम से गद्दी पर बैठे। ये प्रारम्भ में ७ वर्ष तक फैजाबाद में रहे। परन्तु बाद में लखनऊ चले आये और उसे ही राजधानी बनाया।
उनके लखनऊ आने से लखनऊ की तकदीर चेती। उस समय तक लखनऊ एक साधारण कस्बा था। आसफउद्दौला ने उसे अच्छा खासा शहर बना दिया। उन्होंने कई मुहल्ले और बाजार बनवाये। वह बड़े शाहखर्च, स्वाधीन प्रकृति के, और हिम्मतवाले शासक थे। उन्होंने सब पुराने दरबारियों को निकालकर नयों को नियुक्त किया। उनके जमाने में दरबार की शानो-शौकत देखने योग्य थी। दाता तो अनोखे थे। उनकी शाहखर्ची से उनकी माँ ने अंग्रेजों से कह-सुनकर खजाना अपने अधिकार में कर लिया था, परन्तु नवाब ने लड़-भिड़कर ६२ लाख रुपये ले लिये। होली, दीवाली, ईद, मुहर्रम के अवसरों पर लाखों रुपये स्वाहा हो जाते थे। ब्याह-शादी की दावतों में ५-५, ६-६ लाख रुपया पानी हो जाताथा। नवाब का अपना रोजाना खर्च भी कम न था। उनके यहाँ १२०० हाथी, ३००० घोड़े, १००० कुत्ते, अगणित मुर्गियाँ, कबूतर, बटेर, हिरन, बन्दर, साँप, बिच्छू और भाँति-भाँति के जानवर थे, जिनके लिए लाखों की इमारतें बनी थीं और लाखों रुपये खर्च होते थे। उनके निजू नौकरों में २००० फराश, १०० चोबदार और खिदमतगार तथा सैकड़ों लौंडियाँ थीं। ४ हजार तो माली थे। रसोई
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