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दी थी पर फौज का कोई भी बन्दोबस्त न था। मिरजा साहब ने हिम्मत न हारी। उन्होंने दिल्ली के आवारा और बेकार मुसलमान युवकों को बटोर-कर संगठित किया और कहा-"क्यों पड़े-पड़े बेकार जिन्दगी बरबाद करते हो? खुदा ने चाहा तो अवध पर दखल करके मजा करेंगे।"

कुछ ही दिनों में हजारों आदमी जमा हो गये। कुछ तोपें और हथियार शाही शस्त्रागार से मिल गए। इस फौज को दिल्ली से अवध तक ले जाने और सामान के लिये बैल खरीदने को मिरजा ने अपनी बेगम के जेवर तक बेच डाले।

जब मिरजा इस ठाठ से चले तो रास्ते में आगरे के सूबेदार ने इनकी खातिरदारी करनी चाही। आपने कहा-"जो रुपया मेरी खातिर-तवाजे में खर्च करना चाहते हो, वह मुझे नकद दे दो, क्योंकि रुपये की मुझे बड़ी जरूरत है।"

आगरे के सूबेदार ने यही किया।

वहाँ से बरेली पहुंचे तो वहाँ के सूबेदार से भी दावत के बदले रुपया लेकर फर्रुखाबाद आये।

वहाँ नवाब ने कहा-"लखनऊ के शेख बड़े लड़ाके और अवध के आदमी भारी सरकश हैं। आप एकाएक गंगा पार न कर, पहले आसपास जमींदारों और रईसों को मिला लें, तब सबकी मदद लेकर लखनऊ पर चढ़ाई करें।"

मिरजा ने यही किया और जब वे धूमधाम से लखनऊ पहुँचे और शेखों को अपने आने की सूचना दी तो वे इनकी सेना से डर गये और कहा--'आप गोमती के उस पार मच्छी-भवन में डेरा डालिये।"

मच्छी-भवन अनायास ही दखल हुआ देखकर मिरजा बहुत खुश हुए, क्योंकि उन्हें आशा न थी कि बिना रक्तपात हुए सफलता मिल जायगी।

नवाब ने अपने सुप्रबन्ध और चतुराई से थोड़े ही दिनों में सूबे की आमदनी सात लाख रुपया कर ली और अट्ठाईस वर्षों तक बड़ी सफलता से शासन किया। मृत्यु के समय खजाने में नौ करोड़ रुपये जमा थे।

उनकी मृत्यु पर उनके भांजे और दामाद मिरजा मुहम्मद मुकीम अबुल मन्सूरखाँ सफदरजंग के नाम से वजीरे-नवाब नियुक्त हुए। वह

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