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इसके बाद उसने टीपू और मराठों में होती हुई सुलह में विघ्न डालकर मराठों से भी एक समझौता कर लिया। तीन बार उसने इंगलैंड से कुछ गोरी फौज तथा ५ लाख पौंड कर्ज भी मंगवाये।

अब त्रावनकोर के राजा से भी युद्ध छिड़वा दिया गया, और अंग्रेज उसकी मदद पर रहे। मुठभेड़ होने पर फिर टीपू ने अंग्रेजी सेना को हारपर-हार देनी आरम्भ की। अन्त में स्वयं कार्नवालिस ने सेना की बागडोर हाथ में ली। निजाम और मराठे उसकी सहायता को सेनाएँ ले-लेकर उससे मिल गये। ठीक युद्ध के समय तमाम योरोपियन अफसर और सिपाही शत्रु से मिल गये। टीपू के कुछ सेनापति और सरदार भी घूस से फोड़ लिये गये। यद्यपि टीपू की कठिनाइयाँ असाधारण थीं, पर उसने वीरता और दृढ़ता से कई महीने लोहा लिया। अन्त में बंगलौर अंग्रेजों के हाथ में आ गया-टीपू को पीछे हटना पड़ा।

अब कार्नवालिस ने मैसूर की राजधानी श्रीरंपपट्टन पर चढ़ाई की। टीपू ने युद्ध किया, और सुलह की भी पूरी चेष्टा की। अंग्रेजों ने लालबाग में हेदरअली की सुन्दर समाधि पर अधिकार कर लिया, और उसे लगभग नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। अन्त में दोनों दलों में सन्धि हुई, और टीपू का आधा राज्य लेकर कम्पनी, निजाम और मराठों ने बाँट लिया। इसके सिवा टीपू को ३ किस्तों में ३ करोड ३० हजार रुपया दण्ड देने का भी वचन देना पड़ा; और इस दण्ड की अदायगी तक अपने दो बेटों को-जिनमें एक की आयु १० वर्ष और दूसरे की ८ वर्ष की थी—बतौर बन्धक अंग्रेजों के हवाले करना पड़ा।

इस पराजय से टीपू का दिल टूट गया, और उसने पलंग-बिस्तर छोड़- कर टाट पर सोना शुरू कर दिया, और मृत्यु तक उसने ऐसा ही किया।

टीपू ने ठीक समय पर दण्ड का रुपया दे दिया, और बड़ी मुस्तैदी से वह अपने राज्य, राज्य-कोष और प्रबन्ध को ठीक करने लगा। युद्ध के कारण जो मुल्क की बर्वादी हुई थी, उसे ठीक करने में उसने अपनी सारी शक्ति लगा दी। सेना में भी नई भर्ती करना और उसे शिक्षा देना उसने आरम्भ किया। इस प्रकार शीघ्र ही उसने अपनी क्षति-पूर्ति कर ली।

उधर अंग्रेज सरकार भी बेखबर न थी। उधर भी सैन्य-संग्रह हो रहा

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