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तथा गोरे-काले सिपाही थे, वे तैयार होकर दरवाजे पर आ डटे। परन्तु बुद्धिमान नवाब ने आक्रमण नहीं किया। उसका मतलब खून बहाने का न था। वह केवल उनकी राजनीति के विरुद्ध, किले बनाने की कार्यवाही का विरोध करने और अपनी आज्ञा के निरादर का दण्ड देने आया था।

सोमवार, मंगल, बुध, बृहस्पतिवार भी बीत गया। नवाब की अगणित सेना किला घेरे खड़ी रही, पर आक्रमण नहीं किया। उस क्षुद्र किले को राख का ढेर बनाना क्षण-भर का काम था। इस चुप्पी से अंग्रेज बड़े चकित हुए, घबराये भी। न मालूम नवाब का क्या इरादा है! अन्त में साहस करके डॉ० फोर्थ साहब को दूत बनाकर नवाब की सेवा में भेजा गया।

उमरबेग ने फोर्थ को समझा दिया-"घबराओ मत, नवाब का इरादा खून-खराबी का नहीं है। आपके प्रधान वाट्सन साहब को नवाब के दरबार में एक मुचलका लिख देना होगा और उसे वे यदि राजी से न लिखेंगे, तो जबर्दस्ती लिखाया जायगा। सिर्फ इतनी सेना इसीलिये यहाँ आई है।"

पर वाट्सन साहब को आत्म-समर्पण करने का साहस नहीं हुआ। उन्होंने अत्यन्त नम्रतापूर्ण लिख भेजा-

"नवाब साहब का अभिप्राय ज्ञात हो जाने-भर की देर है। पश्चात् जो उनकी आज्ञा होगी-अंग्रेजों को वह स्वीकार होगा।"

इस पत्र का नवाब के दरबार से यही उत्तर मिला-"किले की चार-दीवारी गिरा दो-बस, यही नवाब का एकमात्र अभिप्राय है।"

अंग्रेजों ने बड़े शिष्टाचार और नम्रता से कहला भेजा कि-नवाब का जो हुक्म होगा, वही किया जायगा।

परन्तु अंग्रेज रिश्वत और खुशामद के जोर से मतलब निकालने की चेष्टा करने लगे। उन्होंने अमीर-उमरावों को रिश्वतें देकर अपने वश में कर लिया। अंग्रेज सिराजुद्दौला के स्वभाव और उद्देश्य को नहीं जानते थे। उन्होंने इस अभियान का यही मतलब समझा था कि रिश्वत और भेंट लेने के लिये यह नया जाल फैलाया गया है। काले लोगों को हीन समझने वाले इन बनियों के दिमाग में यह बात न आई कि सिराजुद्दौला युवक और ऐयाश है तो क्या है, वह देश का राजा है। विद्वान् सिराजुद्दौला, इन प्रलोभनों से ज़रा भी विचलित नहीं हुआ।

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