सैनिकों की संख्या में नित्य वृद्धि होती जा रही थी। एक दिन कोर्दै का एक परिचित युवक सेना में भरती होने के लिए आया। वह कोर्दे से स्नेह करता था। कोर्दे भी उसकी ओर आकृष्ट हुई थी, परन्तु वह अपना जीवन देश-हित में अर्पण करने की प्रतिज्ञा कर चुकी थी, अतः उस युवक के सम्मुख आत्म-समर्पण न कर सकी।
उसने अपना एक चित्र उस युवक को देकर कहा-"तुम्हें प्रेम करने का मुझे अधिकार नहीं है, व्यवहारिक दृष्टि से भी मुझे साथ रखने में तुम्हें कष्टों के सिवा और कुछ न मिल सकेगा। हाँ, इस चित्र के रूप में ही तुम मुझसे प्रेम कर सकते हो।"
युवक को निराश और उदास जाते देखकर कोर्दे की आँखों से अनायास आँसू निकल पड़े।
कोर्दे को रोती देखकर सेनापति पितियन ने पूछा-"यदि यह मनुष्य यहाँ से न जाय तो तुम्हें प्रसन्नता होगी?"
कोर्दे ने ये शब्द सुने और लज्जा से सिर झुका लिया। वह मुख से एक शब्द भी न निकाल सकी और वहाँ से चली गई।
इस घटना के बाद को का वहाँ रहना कठिन हो गया और शीघ्राति-शीघ्र पेरिस पहुँचने की इच्छा प्रबल होती गई। नवीन सेना के पेरिस पहुँचने से पूर्व मारोत का प्राणान्त कर देना ही उसका एक मात्र उद्देश्य था। उसने अपना कार्यक्रम और साधन निश्चित किया। किसी को भी उसके विचारों का पता न था और न स्वयं उसने किसी से इस विषय में कुछ कहा था, परन्तु हृदय के आवेग में आकर उसने अपनी चाची से एक दिन कुछ ऐसे शब्द कह दिये, जिससे अप्रत्यक्ष रूप में उसके विचारों का पता चल गया।
कोर्दे एकान्त में बैठी रो रही थी। चाची ने कारण पूछा।
कोर्दे के मुंह से निकल पड़ा-“मैं अपने देश, अपने सम्बन्धियों और तुम्हारे दुर्भाग्य के लिये रोती हूँ। जब तक मारोत इस संसार में मौजूद है, कोई भी व्यक्ति स्वतन्त्र जीवन की आशा नहीं कर सकता।"
उसी दिन बाजार में कुछ मनुष्यों को ताश खेलते देखकर बड़े तीन शब्दों में कोर्ट ने उनसे भी कहा- "तुम लोगों को खेलने की सूझी है और तुम्हारा
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