तेरह
फ्रांस की राज्य-क्रान्ति के दिनों में वहाँ सभी दल शासन-सूत्र अपने हाथ में लेने के लिये आपस में झगड़ते रहते थे। जिस दल के हाथ में शासन अधिकार आ जाता, वही भाग्य विधायक समझा जाता। इन्हीं अधिकारियों के कारण उस समय फ्रांस में खून बहाया जा रहा था। विरोधियों के प्राण हरण के लिए सैकड़ों बधिक नियुक्त किये जाते थे। १७६२ के सितम्बर मास में ऐसे दो सौ बधिकों द्वारा तीन दिन के भीतर चौदह सौ मनुष्यों का वध केवल पेरिस नगर में हुआ। थक जाने पर इन बधिकों को मद्य और भोजन देकर कार्य जारी रखने के लिये फिर उत्तेजित किया जाता था। इन बधिकों पर १४६३ लिवर मुद्रा व्यय किये गये थे। इतने मनुष्यों की गर्दन काटने के लिए गिलेटिन यन्त्र काम में लाया जाता था। जून १७६३ में गिरोण्डिस्ट दल शासन से च्युत हो गया और दल के सदस्य छिपकर संघर्ष चलाने लगे। वे स्थान-स्थान पर भाषण देकर जनता को अपना पक्ष समझाते रहते थे।
नार्मण्डी प्रान्त के केईन नगर की एक गरीब किसान परिवार की युवती कन्या इन भाषणों को बहुत उत्सुकता से सुनती थी। इसका नाम शालोति कोर्दे था। कोर्दे के पिता को राजनीति और साहित्य से प्रेम था। बाल्यावस्था में माता की मृत्यु होने पर पिता ने उसका लालन-पालन किया और इस प्रकार तभी से वह भी अपने पिता के विचारों से प्रभावित होती गई। गरीबी असह्य होने पर पिता अपने बच्चों का भार उठाने में असमर्थ होकर गृह त्याग, एक मठ में ईश्वर चिन्तन करने लगे। कोर्दे भी अपने पिता के साथ वहीं रहने लगी। इससे वह संयमी और कठोर जीवन की अभ्यस्त हो गई। उसने रूसो, रेनल, प्लूटार्क आदि प्रसिद्ध लेखकों की पुस्तकों का अध्ययन किया। और देश सेवा की भावना मन में भरकर उसमें जूझ गई। नए सत्तारूढ़ दल के नेता मारोत की अमानवीय क्रूरता ने जनता में भय का संचार कर दिया। गिरोण्डिस्ट दल मारोत को नष्ट करने के उपाय सोचने लगा। उन्होंने उसके विरुद्ध एक राष्ट्रीय सेना की भरती आरम्भ की।
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