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देवदासी
 

२८-३-२५


प्रिय रमेश!

तुम्हारा उलहना निस्सार है। मैं इस समय केवल पद्मा को समझ सकता हूँ। फिर अपने या तुम्हारे कुशल-मंगल की चर्चा क्यों करूँ? तुम उसका रूप-सौन्दर्य पूछते हो, मैं उसका विवरण देने में असमर्थ हूँ। हृदय में उपमाएँ नाचकर चली जाती हैं, ठहरने नहीं पातीं कि मैं उन्हें लिपि-बद्ध करूँ। वह एक ज्योति है, जो अपनी महत्ता और आलोक में अपना अवयव छिपाये रखती है। केवल तरल, नील, शुभ्र और करुण आँखें मेरी आँखों से मिल जाती हैं, मेरी आँखों में श्यामा कादम्बिनी की शीतलता छा जाती है। और, संसार के अत्याचारोंसे निराश इस झँझरीदार कलेजे के वातायन से वह स्निग्ध मलयानिल के झोके की तरह घुस आती है। एक दिन की घटना लिखे बिना नहीं रहा जाता---

मै अपनी पुस्तकों की दूकान फैलाये बैठा था गोपुरम् के समीप ही वह कहीं से झपटी हुई चली आती थी। दूसरी ओर से एक युवक उसके सामने आ खड़ा हुआ। वह युवक, मंदिर का कृपा-भाजन एक धनी दर्शनार्थी था; यह बात उसके कानों के चमकते हुए हीरे के 'टप' से प्रकट थी। वह बेरोक-टोक मंदिर में चाहे जहाँ आता-जाता है। मंदिर में प्रायः लोगों को

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