तक यहाँ रहूँगा। मैं यहाँ की भाषा भली भांति बोल लेता
हूँ। मुझे परिक्रमा के भीतर ही एक कोठरी संयोग से मिल
गई है। पास में ही एक कुँआ भी है। मुझे प्रसाद भी मन्दिर
से ही मिलता है। मैं बड़े चैन से हूँ। यहाँ पुस्तकें बेच भी लेता
हूँ, सुन्दर चित्रों के कारण पुस्तकों की अच्छी बिक्री हो जाती है।
गोपुरम् के पास ही में दूकान फैला देता हूँ और महिलायें मुझसे
पुस्तकों का विवरण पूछती हैं। मुझे समझाने में बड़ा आनन्द
आता है। पास ही बड़े सुन्दर-सुन्दर दृश्य हैं---नदी, पहाड़
और जंगल--सभी तो हैं। मैं कभी-कभी घूमने भी चला जाता
हूँ। परन्तु उत्तरीय भारत के समान यहाँ के देवविग्रहों के
समीप हन लोग नहीं जा सकते। दूर से ही दीपालोक में उस
अचल मूर्ति की झाँकी हो जाती है। यहाँ मन्दिरों में संगीत
और नृत्य का भी आनन्द रहता है। बड़ी चहल-पहल है।
आज-कल तो यात्रियों के कारण और भी सुन्दर-सुन्दर प्रदर्शन
होते हैं।
तुम जानते हो कि मैं अपना पत्र इतना सविस्तार क्यों लिख रहा हूँ!---तुम्हारे कृपण और संकुचित हृदय में उत्कण्ठा बढ़ाने के लिये! मुझे इतना ही सुख सही।
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