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आकाश-दीप
 

नगर में आज बड़ी धूमधाम है। जिसे देखो रंगशाला की ओर दौड़ा जा रहा है। रंगशाला के विशिष्ट मंच पर सम्पन्न चित्रकार रूपनाथ ठाट-बाट से बैठा है। धनी, शिक्षित और अधिकारी, लोग अपने आसनों पर जमे हैं। वीणा और मृदंग की मधुर ध्वनि के साथ अभिनेत्री ने यवनिका उठते ही पदार्पण किया। नूपुर की झनकारों की लहर ठहर-ठहर कर उठने लगी। उँगली और कलाई, कटि और बाहुमूल स्वर की मरोर से बल खा रहे थे। लोगो ने कहा---"देखने की वस्तु आज ही दिखलाई पड़ी। जीवन का सबसे बड़ा लाभ आज ही मिला।"

कितने सहृदय अपने उछलते हुए हृदय को हाथों से दबाये थे। शालीनता उनके लिये विपत्ति बन गई थी।

चित्रकार का अधभक्त धनकुबेर भी पास ही बैठा था। उसने कहा---"रूपनाथ, इसका एक सुन्दर चित्र बनाकर तुम मुझे दे सकोगे?"

चित्रकार ने देखा, अतुलनीय छविराशि! तूलिका इसके समीप पहुँच सकेगी? वह आँखो में अंकित करने लगा। सहसा अभिनेत्री के अधर खुल पड़े। नृत्य-श्लथ-श्वास-प्रश्वास क्षण-भर के लिए रुके; बाँसुरी बज उठी। वागीश्वरी के स्वरों के कम्पन की लहरें ज्योति-सी बिखरने लगीं। चित्रकार पुकार उठा---"कला!"

परंतु यह क्या, उसने देखा, कला सजीव चित्र थी। उसकी पूर्णता स्वर-कंपन के ज्योति-मण्डल में ओतप्रोत थी। उसने पागलों

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