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आकाश-दीप
 

नायक ने कहा--“तो तुम्हें फिर बंदी बनाऊँगा।”

“किसके लिये? पोताध्यक्ष मणिभद्र अतल जल में होगा---नायक! अब इस नौका का स्वामी मैं हूँ।”

“तुम? जलदस्यु बुद्धगुप्त? कदापि नहीं।---चौंककर नायक ने कहा और अपनी कृपाण टटोलने लगा। चम्पा ने इसके पहले उस पर अधिकार कर लिया था। वह क्रोध से उछल पड़ा।

“तो तुम द्वन्द्वयुद्ध के लिये प्रस्तुत हो जाओ; जो विजयी होगा, वही स्वामी होगा।”---इतना कह, बुद्धगुप्त ने कृपाण देने का संकेत किया। चम्पा ने कृपाण नायक के हाथ में दे दिया।

भीषण घात-प्रतिघात आरंभ हुआ। दोनों कुशल, दोनों त्वरित गतिवाले थे। बड़ी निपुणता से बुद्धगुप्त ने अपना कृपाण दाँतों से पकड़कर, अपने दोनों हाथ स्वतंत्र कर लिये। चम्पा, भय और विस्मय से देखने लगी। नाविक प्रसन्न हो गये। परंतु बुद्धगुप्त ने लाघव से नायक का कृपाणवाला हाथ पकड़ लिया और विकट हुङ्कार से दूसरा हाथ कटि में डाल, उसे गिरा दिया। दूसरे ही क्षण प्रभात की किरणों में बुद्धगुप्त का विजयी कृपाण उसके हाथों में चमक उठा। नायक की कायर आँखें प्राण-भिक्षा माँगने लगीं।

बुद्धगुप्त ने कहा---"बोलो अब स्वीकार है कि नहीं?”

“मैं अनुचर हूँ, वरुणदेव की शपथ। मैं विश्वासघात न करूँगा।”

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