नन्द रामा अपनी दरिद्रता के दिन अपनी कन्या श्यामा के साथ किसी
तरह काटने लगी। दहेज मिलने की निराशा से कोई ब्याह
करने के लिये प्रस्तुत न होता। श्यामा १४ बरस की हो
चली! बहुत चेष्टा करके भी रामा उसका ब्याह न कर सकी।
वह चल बसी।
श्यामा निस्सहाव अकेली हो गई। पर जीवन के जितने दिन हैं, वे तो कारावासी के समान काटने ही होंगे। वह अकेली ही गंगातट पर अपनी बारी से सटे हुए कच्चे झोपड़े में रहने लगी।
मन्नी नाम की एक बुढ़िया, जिसे 'दादी' कहती थी, रात को उसके पास सो रहती, और न-जाने कहाँ से कैसे उसके खाने-पीने का कुछ प्रबन्ध कर ही देती। धीरे-धीरे दरिद्रता के सब अवशिष्ट चिह्न बिककर श्यामा के पेट में चले गये।
पर, उसकी आम की बारी अभी नीलाम होने के लिये हरी-भरी थी!
कोमल आतप गंगा के शीतल शरीर में अभी ऊष्मा उत्पन्न करने में असमर्थ था। नवीन किसलय उससे चमक उठे थे। वसंत की किरणों की चोट से कोयल कुहुक उठी। आम की कैरियों के गुच्छे हिलने लगे। उस आम की बारी में माधव-ऋतु का डेरा था और श्यामा के कमनीय कलेवर में यौवन का।
श्यामा अपने कच्चे घर के द्वार पर खड़ी हुई मेष संक्रान्ति
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