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आकाश-दीप
 

वृद्ध---"क्यों री किन्नरी! मैं कौन हूँ?"

किन्नरी–--"तुम्हारा तो कोई नया परिचय नहीं है; वही मेरे पुराने बाबा बने हो!

वृद्ध सोचने लगा।

पथिक हँसने लगा। किन्नरी अप्रतिभ हो गई। वृद्ध गंभीर होकर कम्बल ओढ़ने लगा।

XXX

पथिक को उस कुटीर में रहते कई दिन हो गये। न जाने किस बंधन ने उसे यात्रा से वंचित कर दिया है। पर्यटक युवक आलसी बनकर चुपचाप, खुली धूप में, बहुधा देवदारु की लम्बी छाया में बैंठा हिमालयखंड की निर्जन कमनीयता की ओर एकटक देखा करता है। जब कभी अचानक आकर किन्नरी उसका कंधा पकड़कर हिला देती है तो उसके तुषारतुल्य हृदय में बिजली-सी दौड़ जाती है। किन्नरी हँसने लगती है---जैसे बर्फ गल जाने पर लता के फूल निखर आते हैं।

एक दिन पथिक ने कहा---"कल मैं जाऊँगा।"

किन्नरी ने पूछा---"किधर?"

पथिक ने हिम-गिरि की ऊँची चोटी दिखलाते हुए कहा---"उधर, जहाँ कोई न गया हो!"

किन्नरी ने पूछा---"वहाँ जाकर क्या करोगे?"

"देखकर लौट आऊँगा।"

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