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आकाश-दीप
 

"आँधी की सम्भावना है। यही अवसर है। आज मेरे बंधन शिथिल हैं।”

“तो क्या तुम भी बन्दी हो?"

“हाँ, धीरे बोलो, इस नाव पर केवल दस नाविक और प्रहरी हैं।”

“शस्त्र मिलेगा?”

"मिल जायगा। पोत से सम्बद्ध रज्जु काट सकोगे?”

"हाँ। "

समुद्र में हिलोरें उठने लगीं। दोनों बंदी आपस में टकराने लगे। पहले बंदी ने अपने को स्वतंत्र कर लिया। दूसरे का बंधन खोलने का प्रयत्न करने लगा। लहरों के धक्के एक दूसरे को स्पर्श से पुलकित कर रहे थे। मुक्ति की आशा--स्नेह का असम्भावित आलिंगन। दोनों ही अन्धकार में मुक्त हो गये। दूसरे बंदी ने हर्षातिरेक से, उसको गले से लगा लिया। सहसा उस बंदी ने कहा--“यह क्या? तुम स्त्री हो?"

"क्या स्त्री होना कोई पाप है?"--अपने को अलग करते हुए स्त्री ने कहा।

"शस्त्र कहाँ है। तुम्हारा नाम?”

"चम्पा।”

तारक-खचित नील अम्बर और नील समुद्र के अवकाश में पवन ऊधम मचा रहा था। अंधकार से मिल कर पवन दुष्ट हो रहा

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