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स्वर्ग के खाँडहर में
 


मैं भिक्षुनी होने का ढोंग छोड़कर अनाथों के सुख-दु:ख में सम्मिलित होऊँ।"

“उसी रात को वह दोनो बालक-वालिका और विक्रमभृत्य को लेकर, निस्सहाय अवस्था में चल पड़ी। छद्मवेप में यह दल यात्रा कर रहा था। इसे भिक्षा का अवलम्ब था। बाह्लीक के गिरिब्रज नगर के भग्न पाथ निवास के टूटे कोनै में इन लोगों को आश्रय लेना पड़ा। उस दिन आहार नहीं जुट सका, दोनों बालकों के सन्तोष के लिये कुछ बचा था, उसी को खिलाकर वे सुला दिये गये। लज्जा और विक्रम, अनाहार से म्रियमाण, अचेत हो गये।

"दूसरे दिन आँखें खुलते ही उन्होंने देखा तो वह राजकुमार और बालिका, दोनों ही नहीं! उन दोनों की खोज में ये लोग भी भिन्न-भिन्न दिशा को चल पड़े। एक दिन पता चला कि केकय के पहाड़ी दुर्ग के समीप कहीं स्वर्ग है, वहाँ रूपवान बालकों और बालिकाओं की अत्यन्त आवश्यकता रहती है......

"और भी सुनोगी पृथ्वी की दुख-गाथा? क्या करोगी सुन कर, तुम यह जान कर क्या करोगी कि उस उपासिका या विक्रम का फिर क्या हुआ?"

अब मीना से न रहा गया। उसने युवक के गले से लिपट कर कहा---"तो......तुम्ही वह उपासिका हो? आहा, सच कह दो।"

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