पृष्ठ:आकाश -दीप -जयशंकर प्रसाद .pdf/३५

यह पृष्ठ प्रमाणित है।
स्वर्ग के खँड़हर में
 

"हाँ, यह युवक स्वर्ग देखने की इच्छा रखता है"---हरे वस्त्र वाले प्रौढ़ ने कहा।

सब ने सिर झुका लिया। फिर एक बार निर्निमेष दृष्टि से मीना की ओर देखा। वह पहाड़ी दुर्ग का भयानक शेख था। सचमुच उसे एक आत्म-विस्मृति हो चली। उसने देखा, उसकी कल्पना सत्य में परिणत हो रही है।

"मीना---आह! कितना सरल और निर्दोष सौन्दर्य है। मेरे स्वर्ग की सारी माधुरी उसकी भींगी हुई एक लट के बल खाने में बँधी हुई छटपटा रही हैं।"---उसने पुकारा---"मीना!"

मीना पास आकर खड़ी हो गई, और सब उस युवक को घेर कर एक ओर चल पड़े। केवल मीना शेख के पास रह गई।

शेख ने कहा---"मीना, तुम मेरे स्वर्ग की रत्न हो।"

मीना कॉप रही थी! शेख ने उसका ललाट चूम लिया, और कहा---"देखो, तुम किसी भी अतिथि की सेवा करने न जाना। तुम केवल उस द्राक्षा-मण्डप में बैठकर कभी-कभी गा लिया करो। बैठो, मुझे भी वह अपना गीत सुना दो।"

मीना गाने लगी। उस गीत का तात्पर्य था---"मैं एक भटकी हुई बुलबुल हूँ! हे मेरे अपरिचित कुंज! क्षण-भर मुझे विश्राम करने दोगे? यह मेरा क्रंदन है---मैं सच कहती हूँ, यह मेरा रोना है, गाना नहीं! मुझे दम तो लेने दो। आने दो वसंत का वह प्रभात---जब संसार गुलाबी रंग में नहाकर अपने यौवन में

--- ३१ ---