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आकाश-दीप
 


अँगूठे क्षत-विक्षत थे। साहसिक की लम्बी डगों के साथ बालिका हाँफती हुई चली जा रही थी।

सहसा साथी ने कहा---"ठहरो, देखो वह क्या है?"

श्यामा सघन, तृण-संकुल शैल-मण्डप पर हिरण्यलता तारा के समान फूलो से लदी हुई मन्द मारुत से विकम्पित हो रही थी। पश्चिम में निशीथ के चतुर्थ प्रहर में अपनी स्वल्प किरणों से चतुर्दशी का चन्द्रमा हँस रहा था। पूर्व प्रकृति अपने स्वप्न मुकुलित नेत्रों को आलस से खोल रही थी। बनलता का बदन सहसा खिल उठा। आनन्द से हृदय अधीर होकर नाचने लगा। वह बोल उठी---"यही तो है।"

साहसिक अपनी सफलता पर प्रसन्न होकर आगे बढ़ना चाहता था कि बनलता ने कहा---"ठहरो, तुम्हें एक बात बतानी होगी।"

"वह क्या?"

"जिसे तुमने कभी प्यार किया हो उससे कोई आशा तो नहीं रखते?"

"सुन्दरी! पुण्य की प्रसन्नता का उपभोग न करने से वह पाप हो जायेगा।

"तब तुमने किसी को प्यार किया है।"

"क्यों? तुम्हीं को" कहकर आगे बढ़ा।

"सुनो, सुनो, जिसने चन्द्रशालिनी ज्योतिष्मती रजनी के

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