चन्द्र, फीके बादल के गोल टुकड़े के सदृश, अभी दिन रहते ही
गंगा के ऊपर दिखाई दे रहा है। जैसे मन्दाकिनी में जल-विहार
करने वाले किसी देव-द्वन्द्व की नौका का गोल पाल। दृश्य के
स्वच्छ पट में काले-काले बिन्दु दौड़ते हुए निकल गये। युवती ने
देखा, वह किसी उच्च मन्दिर में से उड़े हुए कपोतों का एक झुण्ड
था। दृष्टि फिर कर वहाँ गई जहाँ टूटी काठ की चौकी पर, विवर्ण
मुख, लम्बे असंयत बाल और फटा कोट पहने एक युवक कोई पुस्तक
पढ़ने में निमग्न था।
युवती का हृदय फड़कने लगा। वह उतर कर एक बार युवक के पास तक आई, फिर लौट गईं। सीढ़ियों के ऊपर चढ़ते-चढ़ते उसकी एक प्रौढ़ा संगिनी मिल गई। उससे बड़ी घबराहट में युवती ने कुछ कहा और स्वयं वहाँ से चली गई!
प्रौढ़ा ने आकर युवक के एकान्त अध्ययन में बाधा दी और पूछा---"तुम विद्यार्थी हो?"
"हाँ, मैं हिन्दू-स्कूल में पढ़ता हूँ?"
"क्या तुम्हारे घर के लोग यहीं हैं?"
"नहीं, मैं एक विदेशी, निस्सहाय विद्यार्थी हूँ।"
"तब तुम्हें सहायता की आवश्यकता है।"
"यदि मिल जाय, मुझे रहने के स्थान का बड़ा कष्ट है।"
"हम लोग दो-तीन स्त्रियाँ हैं। कोई अड़चन न हो तो हम लोगों के साथ रह सकते हो।"
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