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प्रणय-चिन्ह
 

'लौट चलो। इस भीषण एकान्त से तुम्हारा मन नहीं भरा?'

'कहाँ चलूँगा। तुम्हारे साथ जीवन व्यतीत करने की साधन नहीं; करने भी न पाऊँगा, लौट कर क्या करूँगा? मुझे केवल चिह्न दे दो, उसीसे मन बहलाऊँगा।'

'मैं उसे पुरस्कार-स्वरूप दे आई हूँ। उसे पाने के लिए तो लूनी के तट तक चलना होगा।'

'तो चलूँगा ।'

यात्रा की तैयारी हुई। दोनों लौट चले।

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सेवक जब सन्ध्या को डोंगी लेकर लौटता है तब उसके हृदय में उस रमणी की सुध आ जाती है। वह अँगूठी निकाल कर देखता और प्रतीक्षा करता है कि रमणी लौटे तो उसे दे दूँ। उसे विश्वास था, कभी तो वह आवेगी।

डोंगी नीचे बँधी थी। वह झोपड़ी से निकल कर चला ही था कि सामने वही रमणी आती दिखाई पड़ी। साथ में एक पुरुष था। न जाने क्यों वह डोंगी पर जा बैठा। दोनों तीर पर आकर खड़े हो गये। रमणी ने पूछा---'मुझे पहचानते हो?'

'अच्छी तरह।'

मैंने तुम्हें कुछ पुरस्कार दिया था। वह मेरा प्रणय-चिह्न

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