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आकाश-दीप
 


किसी प्रेमी का सन्देश कह रहा था; राजा (जमींदार) को सन्देह हुआ। वे क्रुद्ध हुए, बिगड़ गये, परन्तु कन्या के अनुरोध से उसके प्राण बच गये। तबसे वह डोंगी चलाकर अपना पेट पालता था।

तमिस्रा आ रही थी। निर्जन प्रदेश नीरव था। लहरियों का कल-कल बन्द था। उसकी दोनों आँख प्रतीक्षा की दूती थीं। कोई आ रहा हैं! और भी ठहर जाऊँ---नहीं लौट चलूँ। डाँडे डोंगी से जल में गिरा दिये। 'छप’ शब्द हुआ। उसे सिकता-तट पर भी पद-शब्द की भ्रान्ति हुई। रुककर देखने लगा।

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'माँझी उस पार चलोगे?' एक कोमल कण्ठ, वंशी की झनकार।

"चलूँगा क्यों नहीं, उधर ही तो मेरा घर है। मुझे लौटकर जाना है।"

'मुझे भी आवश्यक कार्य है। मेरा प्रियतम उस पार बैठा है। उससे मिलना है। जल्द ले चलो।' यह कहकर एक रमणी आकर बैठ गई। डोंगी हलकी हो गई, जैसे चलने के लिए नाचने लगी हो। सेवक सन्ध्या के दुहरे प्रकाश में उसे आँखें गड़ाकर देखना चाहता था। रमणी खिलखिलाकर हँस पड़ी। बोली, 'सेवक, तुम मुझे देखते रहोगे कि खेना आरम्भ करोगे।'

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