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आकाश-दीप
 


नींद लेने पर जागे। एक दूसरे को देखकर मुसकराने लगे। सेवक ने पूछा---"आप तो इधर से आ रहे हैं, कैसा पथ है?"

'निर्जन मरुभूमि।'

'तब न तो मैं जाऊँगा; नगर की ओर लौट जाऊँगा। तुम भी चलोगे?'

'नहीं, इस खजूर-कुञ्ज को छोड़कर मैं कहीं न जाऊँगा तुम से बोल-चाल कर लेने पर और लोगों से मिलने की इच्छा जाती रही। जी भर गया।'

'अच्छा तो मैं जाता हूँ। कोई काम हो तो बताओ, कर दूँगा।'

'मेरा! मेरा कोई काम नहीं।'

'सोच लो।'

'नहीं, वह तुमसे न होगा।'

'देखूँगा सम्भव है, हो जाय।'

"लूनी नदी के उस-पार रामनगर के जमींदार की एक सुन्दरी कन्या है; उससे कोई सन्देश कह सकोगे?"

'चेष्टा करूँगा। क्या कहना होगा?'

'तीन बरस से तुम्हारा जो प्रेमी निर्वासित है वह खजूर-कुञ्ज में विश्राम कर रहा है। तुमसे एक चिह्न पाने की प्रत्याशा में ठहरा है। अब की बार वह अज्ञात विदेश में जायगा। फिर लौटने की आशा नहीं हैं।'

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