यह पृष्ठ प्रमाणित है।
प्रणय-चिन्ह
१
"क्या अब वे दिन लौट आवेंगे? वे आशाभरी संध्यायें, वह उत्साह भरा हृदय---जो किसी के संकेत पर शरीर से अलग होकर उछलने को प्रस्तुत हो जाता था---क्या हो गया?"
“जहाँ तक दृष्टि दौड़ती है, जंगलों की हरियाली। उनसे
कुछ बोलने की इच्छा होती है, उतर पाने की उत्कण्ठा होती
है। वे हिल कर रह जाते हैं, उजली धूप जलजलाती हुई
नाचती निकल जाती है। नक्षत्र चुपचाप देखते रहते हैं,---चाँदनी मुसकिराकर घूँघट खींच लेती है। कोई बोलनेवाला
नहीं! मेरे साथ दो बातें कर लेने की जैसे सबने शपथ ले ली
है। रात खुलकर रोती भी नहीं---चुपचाप ओस के आँसू गिराकर
--- १४७ ---