पृष्ठ:आकाश -दीप -जयशंकर प्रसाद .pdf/१३७

यह पृष्ठ प्रमाणित है।
चूूड़ीवाली
 


न होने देती, और कोई पथिक भी विश्राम किये बिना उस तालाब से न जाता। कुछ ही दिनों में 'चूड़ीवाली का तालाब' विख्यात हो गया।

सन्ध्या हो चली थी। पखेरुओं का बसेरे की ओर लौटने का कोलाहल मचा और वट-वृक्ष में चहल-पहल हो गयी। चूड़ीवाली चरनी के पास खड़ी बैलों को देख रही थी। दालान में दीपक जल रहा था, अन्धकार उसके घर और मन में बरजोरी घुस रहा था। कोलाहल-शून्य जीवन में भी चूड़ीवाली को शान्ति मिली, ऐसा विश्वास नहीं होता था। पास ही उसकी पिंडुलियों से सिर रगड़ता हुआ कलुआ दुम हिला रहा था। सुखिया उसके लिये घर में से कुछ खाने को ले आयी थी; पर कलुआ उधर न देखकर अपनी स्वामिनी से स्नेह जता रहा था। चूड़ीवाली ने हँसते हुए कहा---"चल तेरा दुलार हो चुका, जा खा ले। चूड़ीवाली ने मन में सोचा, कंगाल मनुष्य स्नेह के लिये क्यों भीख माँगता है? वह स्वयं नहीं करता, नहीं तो तृण वीरुध तथा पशु-पक्षी भी तो स्नेह करने के लिये प्रस्तुत है। इतने में नन्हू ने आकर कहा---"माँ, एक बटोही बहुत थका हुआ अभी आया है। भूख के मारे वह जैसे शिथिल हो गया है।"

--- १३३ ---