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आकाश-दीप
 

"हँसी आती है। तुम किसको दीप जला कर पथ दिखलाना चाहती हो? उसको, जिसको तुमने भगवान् मान लिया है?"

"हाँ वह भी कभी भटकते हैं, भूलते हैं; नहीं तो बुद्धगुप्त को इतना ऐश्वर्य्य क्यों देते?"

"तो बुरा क्या हुआ, इसे द्वीप की अधीश्वरी चम्पारानी!"

"मुझे इस बंदीगृह से मुक्त करो! अब तो वाली, जावा और सुमात्रा का वाणिज्य केवल तुम्हारे ही अधिकार में है महानाविक! परन्तु मुझे उन दिनों की स्मृति सुहावनी लगती है, जब तुम्हारे पास एक ही नाव थी और चम्पा के उपकूल में पण्य लाद कर हम लोग सुखी जीवन बिताते थे---इस जल में अगणित बार हम लोगों की तरी आलोकमय प्रभात में---तारिकाओं की मधुर ज्योति में---थिरकती थी। बुद्धगुप्त! उस विजन अनन्त में जब मांझी सो जाते थे, दीपक बुझ जाते थे, हम तुम परिश्रम से थक कर पालों में शरीर लपेट कर एक दूसरे का मुँह क्यों देखते थे। वह नक्षत्रों की मधुर छाया---"

"तो चम्पा! अब उससे भी अच्छे ढंग से हम लोग विचर सकते हैं। तुम मेरी प्राणदात्री हों, मेरी सर्वस्व हो।"

"नही नहीं, तुमने दस्युवृत्ति छोड़ दी; परन्तु हृदय वैसा ही अकरुण, सतृष्ण और ज्वलनशील है। तुम भगवान् के नाम पर हँसी उड़ाते हो। मेरे आकाश-दीप पर व्यंग कर रहे हो। नाविक! उस प्रचण्ड आँधी में प्रकाश की एक एक किरण के

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