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आकाश-दीप
 


चट्टानों से टकरा चुके थे। उन गीतों में आशा, उषालम्भ, वेदना और स्मृतियों की कचट, ठेस और उदासी भरी रहती।

सब से पीछेवाले युवक ने अभी अपने आलाप को आकाश में फैलाया था, उसके गीत का अर्थ था---

"मैं बार-बार लाभ की आशा से लादने जाता हूँ; परन्तु हे उस जङ्गल की हरियाली में अपने यौवन को छिपानेवाली कोल कुमारी! तुम्हारी वस्तु बड़ी महँगी है! मेरी सब पूँजी भी उसको क्रय करने के लिये पर्य्याप्त नहीं। पूँजी बढ़ाने के लिये व्यापार करता हूँ; एक दिन धनी होकर आऊँगा; परन्तु विश्वास है कि तब भी तुम्हारे सामने रङ्क ही रह जाऊँगा!"

आलाप लेकर वह जङ्गली वनस्पतियों की सुगन्ध में अपने को भूल गया। यौवन के उभार में नन्दू अपरिचित सुखों की ओर जैसे अग्रसर हो रहा था। सहसा बैलों की श्रेणी के अग्रभाग में हलचल मची। तड़ातड़ का शब्द, चिल्लाने और कूदने का उत्पात होने लगा। नन्दू का सुख-स्वप्न टूट गया, "बापरे डाका!"---कहकर वह एक पहाड़ी गहराई में उतरने लगा। गिर पड़ा, लुढ़कता हुआ नीचे चला। मूर्छित हो गया।

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हाकिम परगना और इञ्जीनियर का पड़ाव अधिक दूर न था। डाका पड़नेवाला स्थान दूसरे ही दिन भीड़ से भर गया। गोडै़त और सिपाहियों की दौड़-धूप चलने लगी। एक छोटी-सी

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