स्त्री ने पूछा---"जब तुमने अपना सोने का संसार पैरों से ठुकरा दिया, पुत्र-मुख-दर्शन का सुख, माता का अंक, यश-विभव, सब छोड़ दिया, तब इस तुच्छ भूमिखण्ड पर इतनी ममता क्यों? इतना परिश्रम, इतना बल किस लिये?"
"केवल तुम्हारे-जैसे अतिथियों की सेवा के लिये। जब कोई आश्रय-हीन महलों से ठुकरा दिया जाता है, तब उसे ऐसे ही आश्रय-स्थान अपने अक में विश्राम देते हैं। मेरा परिश्रम सफल हो जाता है,---जब कोई कोमल शय्या पर सोनेवाला प्राणी इस मुलायम मिट्टी पर थोड़ी देर विश्राम करके सुखी हो जाता है।"
"कब तक तुम ऐसा किया करोगे?"
"अनन्त काल तक प्राणियों की सेवा का सौभाग्य मुझे मिले!"
"तुम्हारा आश्रय कितने दिनों के लिये है?"
"जब तक उसे दूसरा आश्रय न मिले।"
"मुझे इस जीवन में कहीं आश्रय नहीं, और न मिलने की संभावना है।"
"जीवन-भर?"---आश्चर्य से वैरागी ने पूछा।
"हाँ।"---युवती के स्वर में विकृति थी।
"क्या तुम्हारे ठंड लग रही है?"---वैरागी ने पूछा।
"हाँ।"---उसी प्रकार उत्तर मिला।
वैरागी ने कुछ सूखी लकड़ियाँ सुलगा दीं। अन्धकार-प्रदेश में
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