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देवदासी
 


ढालुवाँ पहाड़ी कगारा था। मेरे सामने संसार एक हरियाली थी। सहसा रामस्वामी ने आकर कहा--'पद्मा, आज मुझे मालूम हुआ कि तुम उत्तरी दरिद्र पर मरती हो।' पद्मा ने छलछलाई आँखों से उसकी ओर देखकर कहा---'रामस्वामी! तुम्हारे अत्याचारों का कहीं अन्त है?'

"सो नहीं हो सकता। उठो, अभी मेरे साथ चलो।"

"ओह! नहीं, तुम क्या मेरी हत्या करोगे? मुझे भय लगता है!"

"मैं कुछ नहीं करूँगा। चलो, मैं इसके साथ तुम्हें नहीं देख सकता।" कहकर उसने पद्मा का हाथ पकड़ कर घसीटा। वह कातर-दृष्टि से मुझे देखने लगी। उस दृष्टि में जीवन भर के किये गये अत्याचारों का विवरण था। उन्मत्त पिशाच-सदृश बल से मैंने रामस्वामी को धक्का दिया। और मैंने हतबुद्धि होकर देखा, वह तीन सौ फीट नीचे चूर होता हुआ नदी के खरस्रोत में जा गिरा, यद्यपि मेरी वैसी इच्छा न थी। पद्मा ने मेरी और भयपूर्ण नेत्रों से देखा और अवाक्! उसी समय चिदम्बरम् ने आकर मेरा हाथ पकड़ लिया। पद्मा से कहा---"तुम शीघ्र देवदासियों में जाकर मिलो। सावधान! एक शब्द भी मुँह से न निकले। मैं अशोक को लेकर नगर की ओर जाता हूँ।" वह बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये मुझे घसीटता ले चला। मैं नहीं जानता कि मैं कैसे घर पहुँचा। मैं कोठरी में अचेत पड़ रहा। रात भर वैसे ही

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