और थोड़ी ही देर में पद्मा को साथ लिये आया। उसके हाथों में
भोजन का सामान भी था। पद्मा को उसने उत्तेजित कर दिया
था। वह आते ही बोली---'मुझे भी सुनाओ।' जैसे मैं स्वप्न
देखने लगी। पद्मा और मुझसे अनुनय करे। मैंने कहा---'बैठ
जाओ।' और जब वह कुसुम-कंकण मण्डित करों पर कपोल धर
कर मल्लिका की छाया में आ बैठी, तो मैं बजाने लगा। रमेश,
मैंने वंशी नहीं बजाई! सच कहता हूँ, मैं अपनी वेदना श्वासों से
निकाल रहा था। इतनी करुण, इतनी स्निग्ध, मैं ताने ले-लेकर
उसमें स्वयं पागल हो जाता था। मेरी आँखों में मद-विकार था, मुझे
उस समय अपनी पलकें बोझ मालूम होती थीं!
बाँसुरी रखने पर भी उसकी प्रतिध्वनि का सोहाग वन-लक्ष्मी के चारों ओर घूम रहा था। पद्मा ने कहा---‘सुन्दर! तुम सचमुच अशोक हो!' वन-लक्ष्मी पद्मा अचल थी। मुझे एक कविता सूझी! मैंने कहा---पद्मा! मैं कठोर पृथ्वी का अशोक, तुम तरल जल की पद्मा! भला अशोक के राग-रक्त के नवपल्लवों में पद्मा का विकास कैसे होगा?
बहुत दिनों पर पन्ना हँस पड़ी। उसने कहा---अशोक, तुम
लोगों की वचन-चातुरी सीखूँगी। कुछ खा लो।' वह देती गई,
मैं खाता गया। जब हम स्वस्थ होकर बैठे तो देखा, चिदम्बरम्
चला गया है। पद्मा नीचे सिर किये अपने नखों को खुरच रही
है। हम लोग सबसे ऊँचे कगारे पर थे। नदो की ओर
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