प्रणय-स्वीकृति! मैं भी आज वन-यात्रा के उत्सव में देवता के
भोग-विग्रह के साथ इस वनस्थली में आया था। बहुत से
नागरिक भी आये थे। देव-विग्रह विशाल वट वृक्ष के नीचे
स्थित हुआ और यात्री-दल इधर-उधर नदी-तट के नीचे
शैलमाला, कुंजो, गह्वरों और घाटियो की हरियाली में छिप
गया। लोग आमोद-प्रमोद पान-भोजन में लग गये। हरियाली के
भीतर से कहीं पिकलू, कहीं क्लारेनेट और देवदासियों के
कोकिल-कण्ठ का सुन्दर स्वर निकलने लगा। वह कानन-नन्दन हो
रहा था और मैं उसमें विचरनेवाला एक देवता। क्यों? मेरा विश्वास
था कि देववाला पद्मा यहाँ है। वह भी देव-विग्रह के आगे-आगे
नृत्य गान करती हुई आई थी।
मैं सोचने लगा---"अहा! वह समय भी आएगा, जब मैं
पद्मा के साथ एकान्त में इस कानन में विचरूँगा। वह पवित्र,
वह मेरे जीवन का महत्तम योग कब आयेगा?" आशा ने
कहा---"उसे आया ही समझो" मैं मस्त होकर वंशी बजाने
लगा। आज मेरी बाँस की बाँसुरी में बड़ा उन्माद था। वंशी
नहीं, मेरा हृदय बज रहा था। चिदम्बरम्---आकर मेरे सामने
खड़ा हो गया। वह भी मुग्ध था। उसने कभी मेरी बाँसुरी नहीं
सुनी थी। जब मैंने अपनी आसावरी बन्द की, वह बोल उठा---"अशोक, तुम एक कुशल कलावंत हो।" कहना न होगा
कि वह देवदासियों का संगीत-शिक्षक भी था। वह चला गया
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