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विजया

कमल का सब रुपया उड़ चुका था सब सम्पत्ति बिक चुकी थी। मित्रों ने खूब दलाली की न्याय जहाँ रखा वहीं धोखा हुआ। जो उसके साथ मौज मंगल में दिन बिताते थे रातों का आंनद लेते थे वह भी उसकी जेब टटोलते थे। उन्होंने कहीं पर कुछ भी बाकी न छोड़ा। सुखभोग के जितने आविष्कार थे साधन भर सबका अनुभव लेने का उत्साह बढ़ चुका था।

बच गया था एक रुपया ।

युवक को उमत्त आंनद लेने की बड़ी चाह थी। वाधाविहीन सुख लूटने का अवसर मिला था सब समाप्त हो गया। आज वह नदी के किनारे चुपचाप बैठा हुआ उसी की धारा में विलीन हो जाना चाहता था। उस पर किसी की चिता जल रही थी जो दूसरों संध्या में आलोक फैलाना चाहती थी। आकाश में बादल थे उनके बीच में गोल रुपये के समान चंद्रमा निकलना चाहता था। वृक्षों की हरियाली में गांव के दीप चमकने लगे थे । कमल ने रुपया निकाला। उस एक रुपये से कोई विनोद न हो सकता। वह मित्रों के साथ नहीं जा सकता था। उसने सोचा इसे नदी के जल में विसर्जन कर दूँ। साहस न हुआ वही अतिम रुपया था। वह स्थिर दृष्टि से नदी की धारा देखने लगा कानों से कुछ सुनाई न पड़ता था देखने पर भी दृष्य का अनुभव नही-वह स्तब्ध था जड़ था मूक था हृदयहीन था।

मा कुलता दिला दे-दछमी देखने जाऊँगा। मेर लाल ! मैं कहा से ले आऊँ-पेट भर अन्न नहीं मिलता--