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आँँधी

ई कुल बतिया कबों नहीं जनली

देखली को न सपनयाँ म।

बरजोरी बसे हो-

मैं मूर्ख सा उस गान का अर्थ सम्बध लगाने लगा।

अंगने में खेलते हुए कुल बतियाँ--व कौन आत पी? उसे जानने के लिए हृदय चंचल बालक सा मचल गया। प्रतीत होने तगा उन्हीं कुल अज्ञात बातों के रहस्य जाल में मछली सा मन चांदनी के समुद्र में छटपटा रहा है।

मैंने अधीर हो कर कहा- ठाकुर ! इसको बुलवानोगे ? नहीं जी वह पगली है।

पगली ! कदापि नहीं जो ऐसा गा सकती है वह पगली नहीं हो सकती । जीवन ! उसे बुलाओ बहाना मत करो।

तुम व्यर्थ हठ कर रहे हो। एक दीर्घ निश्वास को छिपाते हुए जीवन ने कहा।

मेरा कुतूहल और भी बढ़ा । मैंने कहा-इठ नहीं लड़ाई भी करना पड़े तो करूंगा । बताओ तुम उसे क्यों नहीं बुलाने देना चाहते हो?

वह इसी गांव की भार की लड़की है । कुछ दिनों से सनक गई है। रात भर कभी-कभी गाती हुई गंगा के किनारे घूमा करती है।

तो इससे क्या उसे बुलायो भी।

नहीं मैं उसे न बुलवा सकूँगा।

अच्छा तो यही बतानो क्यों न बुलवानोगे ?

वह बात सुनकर क्या करोगे?

सुनूँँगा-अवश्य ठाकुर ! यह न समझना कि मैं तुम्हारी जींदारी में इस समय बैठा हूँ, इसलिए जाऊँगा। मैंने इसी से कहा । जीवनसिंह ने कहा-तो सुनो-