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आँँधी

निश्चित है। नदन दातों तले जीम दया कर धीरे से बोला -अरे। यह कपिजल ।

अनागत भविष्य के लिए भयभीत कलश तु ध हो उठा । यह साधु की पूजा करके लौट श्राया । राधा अपने नवीन उपवन मे उतरी।

कलश ने पूछा-तुमने महापुरुष से क्या इसना दुविनीत व्यवहार किया?

नहीं पिताजी । वह स्वय दुर्विनीत है। जो स्त्रियों को आते देख कर भी साधारण शिष्टाचार का पालन नहीं कर सकता वह धार्मिक महामा तो कदापि नहीं।

क्या कह रही है मूर्ख ! वे एक सिद्ध पुरुष हैं । सिद्धि यदि इतनी अधम है धर्म यदि इतना निर्लज है तो वह स्त्रियों के योग्य नहीं पिताजी! धर्म के रूप में कीं आप भय की उपासना तो नहीं कर रहे हैं?

तू सचमुच कुलक्षणा है।

इसे तो अतर्यामी भगवान् ही जान सकते हैं। मनु य इसके लिए अत्यत तुद्र है । पिता जी आप

उसे रोक कर अस्पत क्रोध से कलश ने कहा-तुझे इस घर म रखना अलक्ष्मी को बुलाना है । जो मेरे भवन से निकल जा।

नंदन सुन रहा था | काठ के पुतले के समान वह इस विचार का अन्त हो जाना तो चाहता था पर क्या करे य उसकी समझ मे न आया। राधा ने देखा उसका पति कुछ नहीं बोलता तो अपने गर्व से सिर उठा कर कर-मैं धनकुरेर को क्रोत दासी नहीं हूँ। मेरे यहि पोव का अधिकार केवल मेरा पदस्खलन ही छीन सकता है । मुझे विश्वास है मैं अपने आचरण से अब तक इस पद की स्वामिनी हूँ। कोई भी मुझे इससे वंचित नहीं कर सकता।