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आँधी


चदा के तट पर बहुत से छतनारे वृक्षों की छाया है किंतु मैं प्राय मुचकुदु के नीचे ही जाकर टहलता बैठता और कभी कभी चाँदनी में ऊधने भी लगता। वहीं मेरा विश्राम था। वहाँ मेरी एक सहचरी भी थी किन्तु वह कुछ बोलती न थी। व रहट्ठों की बनी हुई मूसदानी सी एक झोपड़ी थी जिसके नीचे पहले सथिया मुसहरिन का मोटा सा काला लड़का पेट के बल पड़ा रहता था। दोनों कलाइयों पर सिर टेके हुए भगवान की अनंत करुणा को प्रणाम करते हुए उसका चित्र आँखों के सामने आ जाता। मैं सथिया को कभी कभी कुछ दे देता था पर वह नहीं के बराबर । उसे तो मजूरी करके जीने में सुख था । अन्य मुसहरों की तरह अपराध करने में वह चतुर न थी। उसको मुसहरों की बस्ती से दूर रहने में सुविधा थी । व मुचकुद के फल इकट्ठ करके बेचती। सेमर की रूई बीन लेती लकड़ी के गट्टे बटोर कर बेचती और‌ उसके इन सब व्यापारों में कोई और सहायक न था । एक दिन वह मर‌ ही तो गई । तब भी कलाई पर से सिर उठा कर करवट बदल कर अँगडाई लेते हुए कलुआ ने केवल एक जँभाई ली थी। मैंने सोचा-स्नेह माया ममता इन सबों की भी एक घरेलू पाठशाला है जिसमें उत्पन्न‌ हो कर शिशु धीरे धीरे इनके अभिनय की शिक्षा पाता है। उसकी अभियक्ति के प्रकार और विशेषता से वह आकर्षक होता है सही किन्तु माया ममता किस प्राणी के हृदय म न होगी । मुसहरों को पता लगा- वे कल्लू को ले गये । तब से इस स्थान की निजनता पर गरिमा का एक और रंग चढ़ गया।

{{gap}}मैं अब भी तो वहीं पहुँच जाता हूँ। बहुत घूम फिर कर भी जैसे मुचकुन्द की छाया की ओर खिंच जाता हूँ। आज के प्रभात में कुछ।