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घीसू

घीसू क्या कहूँ भाई ! कहीं रहने की जगह खोज रहा हूँ-कोई छोटी सी कोठरी मिल जाती जिसमें सामान रखकर ताला लगा दिया करता ।

गोविदराम ने पूछा जहा रहते थे? वहा अब जगह नहीं है।

इसी मढी म क्यों नहीं रहते ! ताला लगा लिया करो मैं तो २४ घंटे रहता नहीं।

घीसू की आँखों में कृतज्ञता के पास भर पाये। गोविंद ने कहा-तो उठो आज तो बूटी छान लो। धीस पैसे की दूकान लगा कर अब भी बैठता है और विदो निय गंगा नहाने पाती है। वह घीस की दुकान पर खड़ी होती है उसे वह चार आने पैसे दे देता है । अब दोनों हसते नहीं मुस्कराते नहीं।

घीसू का बाहरी ओर का जाना छूट गया है । गोवि दराम की डोंगी पर उस पार हो आता है लौटते हुए बीच गंगा में से उसकी लहरीली तान सुनाई पड़ती है कितु घाट पर आते आते चुप ।

बिंदो निय पैसा लेने आती । न तो कुछ बोलती और न घीस कुछ कहता । घीस की बड़ी बड़ी आँखों के चारों ओर हलके पड़ गये थे बिंदो उसे स्थिर हष्टि से देखती और चली जाती । दिन-पर दिन वह यह भी देखती' की पैसों की ढेरी कम होती जाती है। घीस का शरीर भी गिरता जा रहा है। फिर भी एक श नहीं एक बार पूछने का काम नहीं ।

गोविंदराम ने एक दिन पूछा-घीसू तुम्हारी तान इधर नहीं सुनाई पड़ी।

उसने कहा-तबीयत अच्छी नहीं है। गोविंद ने उसका हाथ पकड़ कर कहा-क्या तुम्हें वर अाता है? नहीं तो यों ही श्राज कल भोजन बनाने में श्रालस करता हूँ अण्ट-बण्ट खा लेता हूँ।