यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५५
दासी


कौन ! नियाल्तगीन !- सहसा बलराज चिला उठा।

अच्छा यह तुम्ही हो बलराज | यह तुम्हारा क्या हाल है क्या सुतान की सरकार में अब तुम काम नहीं करते हो?

नहीं सुतान मसऊद का मुझ पर विश्वास नहीं है। मैं ऐसा काम नहीं करता जिसमें सदेह मेरी परीक्षा लेता रहे किन्तु इधर तुम लोग क्यों ?

सुना है बनारस एक सुन्दर और धनी नगर है। और और क्या ?

कुछ नहीं देखने चला आया हूँ। काजी नहीं चाहता कि कन्नौज के पूरब भी कुछ हाथ पाच बढाया जाय । तुम चलो न मेरे साथ । मैं तुम्हारी तलवार की कीमत जानता हूँ। बहादुर लोग इस तरह नहीं रह सकते । तुम अभी तक हिंदू बने हो। पुरानी लकीर पीटनेयाले जगह-जगह झुकनेवाले सब से दबते हुए बचते हुए कतराकर चलने वाले हिन्दू । क्यों ? तुम्हारे पास बहुत सा कूड़ा कचड़ा इकट्ठा हो गया है उनका पुरानेपन का लोम तुमको फेंकने नहीं देता ? मन में नयापन तथा दुनिया का उल्लास नहीं आने पाता | इतने दिन हम लोगों के साथ रहे फिर भी ।

बलराज सोच रहा था इरावती का वह सूखा “यवहार! सीधा सीधा उत्तर । क्रोध से वह अपना श्रोठ चबाने लगा। नियाल्तगीन बलराज को परख रहा था। उसने कहा-तुम कहाँ हो १ बात क्या है ?ऐसा बुझा हुश्रा मन क्यों?

बलराज ने प्रकृतिस्थ होकर कहा -कहीं तो नहीं। अप मुझे छुट्टी दो मैं जाऊँ। तुम्हारा बनारस देखने का मन है-इस पर तो मुझे विश्वास नहीं होता तो भी मुझे इससे क्या ? जो चाहे करो। संसार