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आँँधी
 
                  आँँधी

रात को कलुबा ने पूछा-बाबूजी ! आप घर न चलिएगा। मैं आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगा। उसने हठ भरी आंखों से फिर वही प्रश्न किया । मैंने हंस कर कहा मेरा घर तो यही है रे कलुना।

नहीं बाबूजी ! जहां मिना गये हैं । जहाँ रंजन और कमलो गई हैं वहीं तो घर है।

जहां बहूजी गई है जहां बाबाजी -हठात् प्रज्ञासारथि का मुझे स्मरण हो आया । मुझे क्रोध में कहना पड़ा कलुबा मुझे और कहीं घर वर नहीं है!-फिर मन ही मन कहा इस बात को वह बौद्ध समझता था-

हूँ सब को घर है बाबाजी को बहूजी को -मिन्ना को सब को है आपको नहीं है ? उसने ठुनकते हुए कहा ।

किंतु मैं अपने ऊपर कमला रहा था। मैंने कहा बकवाद न कर जा सो रह आज-कल तू पढ़ता नहीं।

कलुबा सिर झुकाये व्यथा भरे वक्षस्थल को दबाये अपने बिछौने पर जा पड़ा । और मैं उस निस्त ध रात्रि में जागता रहा! खिड़की में से झील का आंदोलित जल दिखाई पड़ रहा था । और मैं आश्चर्य से अपना ही बनाया हुआ चित्र उसमें देख रहा था । चन्दा के प्रशांत जल में एक छोटी-सी नाव है जिस पर मालती रामेश्वर बैठे थे और मैं डांडा चला रहा था । प्रज्ञासारथि तीर पर खड़े बच्चों को सहला रहे थे। हम लोग उजली चांदनी में नाव खेलते हुए चले जा रहे थे । सहसा उस चित्र में एक और मूर्ति का प्रादुर्भाव हुआ। वह थी लैला ! मेरी आंखें तिलमिला गई।

मैं जागता था सोता था।

सवेरा हो गया था। नींद से भरी आँखें नहीं खुलती थीं तो भी