आँँधी २७ मे मुझे देखते ही सिर का कपड़ा तनिक आगे की ओर खींचा लिया और लैला ने रामेश्वर को देख कर सलाम किया। दोनों की आखें मिलीं ! रामेश्वर के मह पर पल भर के लिए एक घबराहट दिखाई पड़ी। फिर उसने सम्हल कर पूछा-अरे लैला ] तुम यहाँ कहाँ ? चारयारी न लोगे बाबू । कहती हुई लेला निर्भीक भाव से मालती के पास जाकर बैठ गई।
माखती लैला पर एक सक्षज मुस्कान छोड़ती हुई उठ खड़ी हुई। लला उसका मुंह देख रही थी कि उस ओर ध्यान न देकर मालती ने मुझसे कहा-भाई जी आपने जलपान नहीं किया आज तो आप ही के लिए मैंने सूरन के लड्डू बनाये हैं।
तो देती क्यों नही पगली मैं सबेर से ही भूखा भटक रहा हूँ।- मैंने कहा । मालती जलपान ले आने गई । रामेश्वर ने कहा-चारयारी ले आई हो ? लैला ने हा कहते हुए अपना बेग खोला। फिर रुक कर उसने अपने गले से एक ताबीज निकाला । रेशम से लिपटा हुआ चौकोर ताबीज का सीवन खोल कर उसने वही चिट्ठी निकाली । मैं स्थिर भाव से देख रहा था। लैला ने कहा-पहले पाबूजी इस चिट्ठी को पढ दीजिए। -रामेश्वर ने कम्पित हाथों से उसको खोला यह उसी का लिखा हुना पत्र था। उसने घबरा कर लैला की ओर देखा । लेखा ने शात स्वरों में कहा--पढिए बाबू ! मैं आप ही के मुँह से सुनना चाहती हूँ।
रामेश्वर ने दृढता से पढना आरम्भ किया। जैसे उसने अपने हृदय का समस्त बल आनेवाली घटनाओं का सामना करने के लिए एकत्र कर लिया हो क्योंकि मालती जलपान लिए आ ही रही थी। रामेश्वर ने पूरा पत्र पढ लिया । फेवल नीचे अपना नाम नहीं पढा। मालती खड़ी सुनती रही और मैं सूरन के लडडू खाता रहा। बीच बीच मे मालती का मुंह देख लिया करता था। उसने बड़ी गम्भीरता से