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आँँधी

बुराई की हो।हो सकता है कि मैं उसके किसी अपराध का यह दड समाज यरस्था के किसी मौलिक नियम के अनुसार दे रहा हूँ।फिर चाहे मेरा यह दण्ड देना भी अपराध बन जाय और उसका फल भी मुझेभोगना पड़े। मेरे इस कहने पर प्रज्ञासारथि ने हस दिया और कहा-श्रीनाथजी मैं आपकी दड व्यवस्था ही तो करने आया हूँ। आप अपने बेकार जीवन को मेरी बेगार म लगा दीजिए। मैंने पिण्ड छुड़ाने के लिए कहा-श्रछा तीन दिन सोचने का अवसर दीजिए।

प्रज्ञासारथि चले गए और मैं चुपचाप सोचने लगा। मेरे स्वतंत्र जीवन में माँँ के मर जाने के बाद यह दूसरी उलझन थी।निश्चित जीवन की कल्पना का अनुभव मैंने इतने दिनों तक कर लिया था।मैंने देखा कि मेरे निराश जीवन म उल्लास का छींटा भी नहीं।यह ज्ञान मेरे हृदय को और भी स्पर्श करने लगा।मैं जितना ही विचारता था उतना ही मुझ निश्चितता और निराशा का अभेद दिखलाई पड़ता था।मेरे आलसी जीवन म सक्रियता की प्रतिध्वनि होने लगी।तो भी काम न करने का स्वभाव मेरे विचारों के बीच में जैसे व्यग्य से मुस्करा देता था।

तीन दिनों तक मैंने सोचा और विचार किया।श्रत म प्रजासारथिकी विजय हुई।क्योंकि मेरी दृष्टि म प्रज्ञासारथि का काम नाम के लिए तों अवश्य था कित करने में कुछ भी नहीं के बराबर।

मैंने अपना हृदय हड किया और प्रशासारथि से जाकर कह दियाकि-मैं पाठशाला का निरीक्षण करूगा कितु मेर मित्रानेवाले हैं और वे जब तक यहा रहेंगे तब तक तो मैं अपना बँगला न छोड़गा।क्योंकि यहाँ उन लोगों के आने से आपको असुविधा होगी।फिर जब वे लोग चले जायेंगे तब मैं यहीं आकर रहने लगेगा।

मेर सिंहाली मित्र ने हँस कर कहा-अभी तो एक महीने यहाँ मैंअवश्य रहूँगा।यदि आप अभी से यहा चले आवे तो बड़ा अच्छा हो