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आँँधी

मैने अनजान बन कर पूछा- किस विषय मे १

प्रज्ञासारथि ने कहा-वही पाठशाला की देख रेख करने के लिए जैसा मैंने उस दिन आप से कहा था।

मैंने बात उड़ाने के ढंग से कहा-आप तो सोच विचार कर काम करने में विश्वास ही नहीं रखते।आपका तो यही कहना है न कि मनुष्य प्राय अनिच्छा वश बहुत-से काम करने के लिए बाध्य होता है तो फिर मुझे उसपर सोचने विचारने की क्या आवश्यकता थी?जब वैसा अवसर आवेगा तब देखा जायगा।

कृपया मेरी बातों का अपने मनोनुकूल अर्थ न लगाइए । यह तोमैं मानता हूँ,कि आप अपने ढंग से विचार करने के लिए स्वतंत्र है किंतु उहे क्रियामक रूप देने के समय आपकी स्वतंत्रता में मेरा विश्वास संदिग्ध हो जाता है।प्राय देखा जाता है हम लोग क्या करने लाकर क्या कर बैठते हैं तो भी हम उसकी जिम्मेदारी से छूटते नहीं।मान लीजिए कि लेला के ह य म एक दुराशा उपन करके आपनेरामेश्वर के जीवन म अड़चन डाल दी है।संभव है यह घटना साधारण न रह कर कोई भीषण काण्ड उपस्थित कर सकती है औरआपका मित्र अपने अनिष्ट करनेवाले को न भी पहचान सके तो क्या आप अपने ही मन के सामने इसके अपराधी न ठहरेंगे।

प्रशासारथि की ये बातें मुझे बेढंगी सी जान पड़ीं। क्योंकि उससमय मुझे उनका आना और मुझे उपदेश देने का ढोंग रचना असह्य होने लगा।मेरी इच्छा होती थी कि वे किसी तरह भी यहाँ से चले जाते तो भी मुझे उहें उत्तर देने के लिए इतना तो कहना ही पड़ा कि-श्राप कच्चे अदृष्टवादी हैं।आपके जैसा विचार रखने पर मैं तो इसे इस तरह सुलझाऊगा कि अपराध करने में और दंड देने म मनुष्य एक दूसरे का सहायक होता है।हम आज जो किसी को हानि पहुँचाते हैं या कष्ट देते हैं वह इतने ही के लिए नहीं कि उसने मेरी कोई