यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२
आँँधी

मण्डल पर पड़ रही थीं।दो ढाई वर्ष पहले का चिन दिखाई पड़ा जब भारत की पविनता हजारो कोस से लोगों को वासना दमन करनासीखने के लिए प्रामनित करती थी।आज भी आध्यामिक रहस्योंके उस देश मे उस महती साधना का आशीर्वाद बचा है।अभी भीबोध वृक्ष पनपते हैं!जीवन की जटिल आवश्यकता को त्याग कर जब काषाय पहने सध्या के सूर्य के रण में रंग मिलाते हुए ध्यान स्तिमितलोचन मूर्तिया अभी देखने मे आती हैं तब जिसे मुझे अपनी सत्ता का विश्वास होता है और भारत की अपूर्वता का अनुभव होता है।अपनी सत्ता का इसलिए कि मैं भी त्याग का अभिनय करता हूँ न !और भारत के लिए तो मुझे पूर्ण विश्वास है कि इसकी विजय धर्म मे है।

अधरों मे कुंचित हँसी आँखों मे प्रकाश भरे प्रशासारथि ने मुझे देखते हुए कहा-आज मेरी इछा थी कि आप से भेंट हो।

मैंने हसते हुए कहा-अच्छा हुआ कि मैं प्रत्यक्ष ही आ गया। नहीं तो ध्यान म बाधा पड़ती।

श्रीनाथजी। मेरे ध्यान मे आपके आने की सम्भावना न थी।तो भी आज एक विषय पर आपकी सम्मति की आवश्यकता है।

मैं भी कुछ कहने के लिए ही यहां आया हूँ । पहले मैं कहूँ कि आप ही प्रारम्भ करेंगे?

स़थिया के लड़के कसू के सम्बन्ध मे तो आपको कुछ नहीं कहना है?मेरे बहुत कहने पर मुसहरों ने उसे पढने के लिए मेरी पाठशाला में रख दिया है और उसके पालन के भार से अपने को मुक्त कर लिया।अब वह सात बरस का हो गया है।अच्छी तरह खाता पीता है।साफ सुथरा रहता है। कुछ कुछ पढता भी है!-प्रज्ञासारथि ने कहा।

चलिए अच्छा हुआ!एक रास्ते पर लग गया।फिर जैसा उसके भाग्य में हो।मेरा मन इन घरेलू बधनों मे पड़ने के लिए विरक्त सा-है फिर भी न जाने क्यों कुल्लू का ध्यान आ ही जाता है।-मैंने कहा।