घर बाबू! मैंने चदा के किनारे अपने सफेद बंगले को दिखा दिया।
लला पत्र हाथ में लिए वहीं खड़ी रही । मैं अपने बँगले की ओर चला। मन में सोचता जा रहा था । रामेश्वर | वही तो रामेश्वर नाथ वर्मा ! क्यूरियो मर्चेट ! उसी की लिखावट है । वह तो मेरा परिचित है। मित्र मान लेने में मेरे मन को एक तरह की अड़चन है । इसलिए मैं प्राय अपने कहे जानेवाले मित्रों को भी जब अपने मन में सम्बोधन करता हूँ परिचित ही कहकर ! सो भी जब इतना माने बिना काम नहीं चलता। मित्र मान लेने पर मनुष्य उससे शिव के समान आत्मत्याग बोधिसत्व के दृश्य सवस्व समर्पण की जो आशा करता है और उसकी शक्ति की सीमा को तो प्राय अतिरंजित देखता है। वैसी स्थिति में अपने को डालना मुझे पसंद नहीं । क्योंकि जीवन का हिसाब किताब उस काल्पनिक गणित के आधार पर रखने का मेरा अभ्यास नहीं जिसके द्वारा मनुष्य सब के ऊपर अपना पावना ही निकाल लिया करता है।
अकेले जीवन के नियमित यय के लिए साधारण पूँजी का व्याज मेरे लिए पर्याप्त है। मैं सुखी विचरता हूँ! हां मैं जलपान करके कुर्सी पर बैठा हुआ अपनी डाक देख रहा था। उसमें एक लिफाफा ठीक उसी अक्षरों में लिखा हुआ जिसमें लैला का पत्र निकला था | मैं उत्सुकता से खोल कर पढ़ने लगा- भाई श्रीनाथ ।
तुम्हारा समाचार बहुत दिनों से नहीं मिला। तुम्हें यह जानकर प्रसन्नता होगी कि हम लोग दो सप्ताह के भीतर तुम्हारे अतिथि होंगे। चन्दा की वायु हम लोगों को खींच रही है। मिना तो तंग कर ही रहा है उसकी मां को और भी उत्सुकता है । उन सबों को यही सूझी है कि दिन भर याद में डोंगी पर भोजन न करके हवा खायेंगे और पानी पियेंगे । तुम्हें कष्ट तो न होगा? तुम्हारा-रामेश्वर